बुधवार, 7 जून 2017

सुर-२०१७-१५७ : “किसानी जिंदगी”... जीते-जी रोती पर, पाकर मौत हंसती...!!!


भारतीय अर्थव्यवस्था ही नहीं हम भारतीयों का जीवन भी कृषि पर आधारित जिसका दारोमदार होता अकेले ‘किसान’ के कंधे और हल पर उसके बावजूद भी वो सबसे दीन-हीन और मजबूर प्राणी होता जिसे किसी सरकार के आने-जाने से कोई फ़र्क नहीं पड़ता कि राजा चाहे जो हो उसकी स्थिति ज्यों-की-त्यों रहती तभी तो चाहे अंग्रेजों का जमाना हो या अपने देश का लोकतंत्र वो आज भी अपने हक़ की लड़ाई लड़ रहा हैं और सबको जीवन देने वाला बदले में ‘मौत’ का पुरस्कार पा रहा हैं वो जीवन भर अपनी जरूरतों की पूर्ति के लिये तरसता रहता यहाँ तक कि खेती करने के लिये भी कर्ज लेता तब जाकर फ़सल बोता परंतु इतने करने भी कोई गारंटी नहीं कि खुशियाँ उसकी झोली में आ ही जाये क्योंकि कभी मानसून तो कभी प्राकृतिक आपदा की मार भी झेलता और जो उससे बच भी जाये अगर तो कर्ज के चाबुक से लहुलूहान हो जाता याने कि हर हाल में उसकी आँखों में आँसूं ही नजर आते और जो इन हालातों में वो अपने हक़ की लड़ाई लड़े तो वादों के झुनझुने से काम चलाना पड़ता और जो  इन प्रलोभनों से भी वो न माने तो बंदूक से निकली गोली से उसकी आवाज़ ही नहीं वज़ूद को ही ख़त्म कर दिया जाता

किसान की पीड़ा को समझना आसान नहीं कि उपर से भले वो खुशहाल नजर आये लेकिन भीतर ही भीतर रोता और छोटी-छोटी खुशियों को तरसता जो फ़सल की तरह कम ही लहलहाती और कभी लहरा भी जाये तो साहूकार ग्रहण बनकर उसे लील लेता इस तरह जब वो आजीवन खुद को ऋण के चक्रव्यूह से घिरा पाता तो फिर उससे बाहर निकलने आंदोलन का हथियार अपनाता परंतु, ‘अभिमन्यु’ की तरह उससे निकल नहीं पाता क्योंकि अपने ही दुश्मन बनकर उसे घेरे जो रहते और उसके प्रयासों को निष्फल करने का लक्ष्य लेकर उसे भेदते रहते तो उनका सामना करते-करते अंततः वो दम तोड़ ही देता...
    

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पेट की आग सी
तेज जलती हुई धरती
सूनी पथराई आँखों जैसी
राह तकती हुई नदी
निसंतान माँ के समान
निराशा में खाली पड़े खेत
अंतिम क्षणों में प्रिय को देखने की
लालसा लिये मरणासन्न हुये
व्यक्तियों जैसे दम तोड़ते जानवर
दाने-दाने को मोहताज़ हुये
किसी भिक्षुक की तरह
दर-दर भटकते भूखे-प्यासे बच्चे
और इन सबको देखने विवश
लाचार मज़बूर कृषक
सब कुछ देखकर जानते-बूझते
अनजान बने साहूकर सम
क़र्ज़ वसूलने को खड़े रिश्तेदार
हर किसी को जिससे चाहिये
अपनी खुशियों के सामान
उस किसान की पीड़ा को न जाने
इस दुनिया में कोई भी इंसान
जब सुनता न हो दर्द की पुकार
रईसों के मंदिरों में बैठा हुआ भगवान
तो ऐसे में आत्महत्या के सिवा
क्या करें जमीन को माँ मानने वाला
और खेती के अलावा कुछ भी
न जानने वाला किसान
मगर, देखकर उन घरों का हाल
जहां घर को अनाथ कर
फांसी पर चढ़ गये खेवनहार
पाकर राई-सा मुआवज़ा
फिर मरने की कगार पर पहुंचा
उन आत्मघातियों का परिवार
तो विद्रोह की क्रांति को सुलगा उठा
वो एक जिम्मेदार बागवान
मगर, उसकी इस खिलाफ़त से
बिगड़ गयी सरकार तो कुचल डाला
उनकी आवाज़ और देह को
फिर छिड़ककर मुआवजे का गंगा जल
देकर सरकारी नौकरी की आहुति
पवित्र बना डाला अनैतिक अधर्मी अनुष्ठान ।।
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वो बेचारे तो जितने कर्ज माफ़ी की मांग कर रहे थे यदि उन्हें उतना ही प्रतिदान दे दिया जाता तो न केवल सरकार का ही फ़ायदा होता बल्कि कृषक भी कष्ट भरी चार दिन की जिंदगी में कम से कम दो दिन तो हंसकर गुज़ार लेता लेकिन अब तो उनके परिजनों को भी इस आग में ही ताउम्र जलाना होगा कि ‘मुआवज़ा’ या ‘सरकारी नौकरी’ उस जख्म का मरहम नहीं बन सकती जो उन्हें मिला हैं... :( :( :( !!!      

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© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)

०७ जून २०१७

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