गुरुवार, 29 जून 2017

सुर-२०१७-१७९ : साहित्यिक आत्मावलोकन : “मैं क्यों लिखता / लिखती हूँ???”


ये एक ऐसा प्रश्न जो किसी कंकर की भांति हमारे जेहन के शांत समंदर में विचारों की लहरें उत्पन्न कर अनेक नवीन प्रश्नों को भी जन्म देता और हमें सोचने बोले तो खुद का आत्मावलोकन करने विवश करता कि हम सब जो नित्य इस पटल पर या डायरी में या कहीं पर भी पद्य / गद्य  सृजन कर रहे हैं तो आखिर उसका प्रयोजन क्या हैं ? क्या ये स्वांत सुखाय हैं या परिजन हिताय ?? क्या ये देश-समाज में कोई परिवर्तन लाने में सहायक सिद्ध होगा या इनबॉक्स और सोशल मीडिया या फिर किताब के पन्नों पर ही सड़ता रह जायेगा ???

वाकई जब तक हमें अपने लिखने का कारण न पता हो वो लेखन भले ही रुचिकर हो या चार लोगों को भी भाता हो लेकिन अपने गंतव्य को नहीं पा सकता क्योंकि उसे रचते समय ये विचार नहीं किया गया कि इससे क्या बदलाव या प्रभाव पड़ सकता जिस तरह कि 'ऋषि वाल्मीकि' ने 'रामायण' तो 'वेद व्यास' ने 'महाभारत' और 'तुलसीदास' ने 'श्रीरामचरितमानस' रचते समय आने वाले कल को बीते कल की धरोहर सौंपने के साथ-साथ ये भी ध्यान रखा कि इन कथाओं से लोग संस्कार, आदर्श, चरित्र, नैतिकता, धर्म और अधर्म को जान खुद में परिवर्तन कर एक नया कीर्तिमान स्थापित कर सके तभी वे महाग्रंथ भले ही धर्मग्रंथ की तरह पूजे जाते हो मगर, वास्तव में काव्य एवं ज्ञान का अद्भुत भंडार हैं जिनसे हमें जीवन के अनेकानेक सबक प्राप्त होते हैं ।

इसी तरह 'कौटिल्य' का 'अर्थशास्त्र' हो या फिर 'विष्णु शर्मा' रचित 'पंचतंत्र' या फिर 'महात्मा गांधीजी' द्वारा लिखित उनकी आत्मकथा 'सत्य के प्रयोग' या 'श्री जवाहरलाल नेहरू जी' की लिखी 'डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया' या 'डॉ. भीमराव आंबेडकर' की 'संविधान' पर लिखी गयी पुस्तक हो ये सब एक तरह के आध्यात्मिक, राजनैतिक और ऐतिहासिक दस्तावेज हैं जिनसे हमें महत्वपूर्ण जानकारियां हासिल होती तो इस तरह का लेखन जब भी किया जाता वो शाश्वत होता युगों-युगों तक पढ़ा जाता ।

इसके अलावा यदि हम साहित्यिक क्षेत्र में नजर डाले तो 'कालिदास', 'सूरदास', 'कबीर', 'रसख़ान', 'अमीर खुसरो', 'रविंद्रनाथ टैगोर',  'बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय',  'जयशंकर प्रसाद', 'हरिशंकर परसाई', 'महादेवी वर्मा', 'भगवती चरण वर्मा', 'अमृता प्रीतम', 'आचार्य चतुरसेन', 'डॉ शिवमंगल सिंह सुमन', 'मैथिलीशरण गुप्त', 'मुक्तिबोध', 'अज्ञेय', 'निराला', 'डॉ हरिवंशराय बच्चन', 'सुमित्रानन्दन पंत', 'मिर्ज़ा ग़ालिब', 'नरेंद्र कोहली' आदि ये फेहरिश्त तो बहुत लंबी हैं और ये सिर्फ़ नाम नहीं बल्कि लेखन के सशक्त अमिट हस्ताक्षर हैं जिन्होंने न सिर्फ साहित्य को समृद्ध किया बल्कि अपनी कलम से एक नूतन क्रांति की मशाल भी जलाई जो अब तक उसी तरह अपनी रौशनी से नये आने वालों को राह दिखा रही हैं ।

ये जो चंद नाम हैं अपनी-अपनी विधा व अलग शैली के पुरोधा हैं जिन्होंने अपने शब्दों से ही कभी हथियार का काम लिया तो कभी उनको पारसमणि सदृश बना पाठक को अकिंचन से कुंदन बना दिया याने कि अक्षरों में ही ऐसा जादू कि पढ़ने वाला उससे प्रभावित हो सकारात्मक रूप से परिवर्तित हो गया ।

ऐसे में ये मंथन जरूरी कि हम इनके बीच कहाँ हैं ???

हर एक रचनाकार के लिये ये जरूरी कि वो स्वयं का आकलन करें अपने लेखन को सार्थकता की कसौटी पर कसकर उसका मूल्यांकन करें कि जो भी उसने लिखा क्या वो जनहित में अपना योगदान देगा या फिर यूँ ही अनगिनत तथाकथित कुकुरमुत्ते की तरह दिनों-दिन उग रहे रचनाकारों के बीच केवल एक संख्या में बढ़ोतरी करेगा । जब तक वो अपनी कलम से उद्देश्यपूर्ण लोकहिताय सृजन न करें तो वो सिर्फ़ आत्मसंतुष्टि या खानापूर्ति हेतु किया गया लेखन कहलायेगा जिसका फिर प्रकाशन करना या करवाना महज़ कागजों की बर्बादी कहलायेगा इस वजह से हमने भी पिछले साल से कुछ भी प्रकाशन हेतु नहीं दिया क्योंकि काफी दिनों से ऐसा कुछ लिखा नहीं जिससे किसी का भला हो तो इस तरह के लेखन हेतु सोशल मीडिया पर्याप्त जो हमारे भीतर के भावों को प्रकट करने मंच मुहैया कराता ।

हो सकता इन्हीं माध्यमों में लिखते-लिखते हमारी कलम और सोच में परिपक्वता आ जाये और हम कोई विलक्षण सृजन कर पाये अतः लिखना छोड़ना तो कोई विकल्प नहीं बल्कि खुद में सुधार लाना अच्छे साहित्यकारों को पढ़ना जरूर हमें कोई दिशा दे सकता हैं तो सभी लोग लिखते रहे उससे ज्यादा पढ़ते रहे और हाँ प्रतिदिन कुछ समय निकाल ये जरूर सोचे कि उनका सृजन सार्थक हैं या निरर्थक या व्यर्थ या फिर खुदगर्ज । इतना ही कर लिया तो निश्चित ही किसी दिन भटकते-भटकते ही सही ठिकाना मिल जायेगा क्योंकि न लिखने से कोई हल न मिलेगा लेकिन लिखना जरूर यदि आपके भीतर ललक और जज्बा हैं तो एक दिन अपनी मंज़िल तलाश लेगा फिर भी यदि लगता कि हम उतना बेहतर या अच्छा या नया नहीं लिख पा रहे जो हमसे पूर्व के लेखक लिख चुके तो निसंदेह फिर उनको ही साँझा करें ।

यदि हम साहित्यिक दुनिया में कहीं नहीं भी हैं तो अब भी समय कि यदि हमने लेखन को ही अपना कर्मक्षेत्र माना तो कुछ ऐसा लिखे कि वो इतिहास भले न बने पर, जनमानस में गहरे पैठ जाये कि नाम लेते ही कृति आँखों में उभर जाये जैसे कि 'धर्मवीर भारती' की 'गुनाहों का देवता' महज़ रूमानी उपन्यास लेकिन आज भी उसका जलवा बरकरार इसी तरह 'चंद्रधर शर्मा गुलेरी' के बारे में कहा जाता कि उन्होंने सिर्फ़ तीन कहानियाँ लिखी लेकिन अपना नाम अमर कर गये उनकी लिखी 'उसने कहा था' एक कालजयी रचना जो अब तक भी पाठ्यक्रम में पढ़ाई जाती कहने का मतलब कि भले कम लिखो या जरूरी नहीं कि वो देश या समाज में कोई क्रांतिकारी परिवर्तन लाये लेकिन ऐसा हो कि वो पढ़ने वालों के दिल-दिमाग पर ऐसा छाये कि फिर पाठक उसे कभी भूल न पाये तो समझो आपकी कलम अपना लक्ष्य पा गयी ।

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© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)

२९ जून २०१७

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