रविवार, 11 जून 2017

सुर-२०१७-१६१ : सरफ़रोशी की तमन्ना के तलबगार... ‘रामप्रसाद बिस्मिल’ ने हिलाई फ़िरंगी सरकार...!!!


‘रामप्रसाद बिस्मिल’ का नाम इतिहास में केवल ‘काकोरी कांड’ को अंजाम देने के लिये ही दर्ज नहीं हैं बल्कि उनकी देशभक्ति से भरी प्रेरक शायरी के लिये भी हैं क्योंकि उन्होंने अपनी रचनाओं के माध्यम से लोगों में देशभक्ति की भावना भी जागृत की जिसका प्रमाण ‘सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में हैं, देखना हैं जोर कितना बाजू-ए-क़ातिल में हैं’ जिसे आज भी लोग गुनगुनाते हैं और यही वो गीत भी बना जिसे गाकर न जाने कितने लोगों के मन में देश के प्रति जान देने की भावना जागी तो न जाने कितने इसे गुनगुनाते हुये फांसी के फंदे पर भी झूल गये तो इस तरह से ‘रामप्रसाद बिस्मिल’ केवल एक देशभक्त ही नहीं बल्कि बहुमुखी प्रतिभा के धनी भी थे जिन्होंने अपने क्रियाकलापों ही नहीं बल्कि अपनी कलम से भी हर किसी के भीतर अपने प्राणों की आहुति देकर भी भारत माता को स्वतंत्र कराने की भावना का संचार किया आज ही का वो शुभ दिन था जब ११ जून १८९७ में पंडित मुरलीधर के मैनपुरी स्थित घर पर इन्होने बालक रूप में जनम लिया चूँकि इसके पूर्व हुई उनकी संतान अधिक समय तक जीवित न रह सकी थी तो इस बच्चे के लिये हर तरह के जतन व उपाय किये गये ताकि इसे कुछ न हो और इनके लालन-पालन के साथ-साथ पढ़ाई-लिखाई पर भी बेहद ध्यान दिया गया कि उन्हें हर तरह की भाषा और हर बार का ज्ञान हो तो इसके लिये कई बार पिता के द्वारा सख्ती का इस्तेमाल भी किया गया लेकिन वे उनकी भलाई के लिये ही मारते थे तो उन्होंने भी अपनी गलतियों को न दोहराने का संकल्प लेते हुये हिंदी, उर्दू एवं अंग्रेजी में महारत हासिल प्राप्त करने उनका ज्ञान प्राप्त किया जिसके कारण उनकी इन भाषाओ पर बाल्यकाल से ही अच्छी पकड़ बन गयी थी

घर में पारिवारिक माहौल बेहद संस्कारी और धार्मिक था जिसमें उनकी माँ बेहद साहसी महिला थी तो दादा-दादी उनको बेहद प्रेम करते थे इस तरह सबके सानिध्य में उनका बचपन बीता लेकिन नव-जवानी में उनको गलत संगत के कारण अन्य नौजवानों की तरह कुछ बुरी आदतें भी लग गयी परंतु जब इसका अहसास हुआ तो उन्होंने इनसे जल्द ही पीछा छुड़ा किया और फिर उन्हें दयानंद सरस्वती के ‘सत्यार्थ प्रकाश’ का साथ मिला तो वे ‘आर्य समाज’ से प्रभावित होकर उसमें शामिल हो गये और वेदों को जानने का प्रयास किया तो उनके गहन अध्ययन से उनके जीवन में नवीनतम विचारों और विश्वासों ने अपनी जड़ें जमाना शुरू किया जिसने उनके जीवन की दिशा ही बदल दी और उन्हें सत्य, संयम, ब्रह्मचर्य का महत्व समझ में आया तो उन्होंने अखण्ड ब्रह्मचर्य व्रत का प्रण किया जिसे पूरा करने उन्होंने अपनी पूरी जीवनचर्या में परिवर्तन कर दिया । धीरे-धीरे उनको ये समझ में आया कि उनके देश पर विदेशियों ने अपना अधिकार जमा लिया और उनको ही गुलाम बना लिया तो इस बात ने उनको बेहद पीड़ा दी कि वे लोग अपने ही देश में चंद पराये लोगों के अधीन रहने को मजबूर हैं क्योंकि उन्होंने धोखे से भारत देश पर अपना अधिकार जमा लिया हैं और वहां रहने वालों को अपना गुलाम बना लिया हैं तो फिर उन्होंने उनसे टकराने की ठानी और ऐसे प्रयास किये कि वो अपने देश के प्रति कुछ ऐसा कर पाये कि अंग्रेज देश छोड़कर जाने को मजबूर हो जाये और समस्त भारतवासियों को गुलामी की इन जंजीरों से आज़ादी मिल जाए तो अपने इस संकल्प को साकार करने के लिये दिन-रात अथक प्रयासों में लगे रहते कि किसी भी तरह से अपने वतन से पराये लोगों को उनके घर वापस भेज दिया जाये जिससे कि अपने देश में केवल अपनों का ही राज हो जिसके लिये कुछ ऐसा कारनामा करने की जरूरत थी कि फ़िरंगी सरकार की नींव ही हिल जाये

अपनी प्रतिज्ञा को पूरा करने उन्होंने अपने साथ अपनी ही विचारधारा के लोगों को जोड़ा लेकिन अपने आपको आर्थिक रूप से कमजोर पाया तो सरकारी खजाने को लूटने का निश्चय किया और वैसे भी उनका मानना था कि सारा पैसा देश का ही हैं जिस पर फ़िलहाल पराये लोगों ने कब्जा जमाया हुआ हैं तो  ९ अगस्त, १९२५ को उन्होंने अपने क्रांतिकारी साथियों अशफाकउल्ला, चन्द्रशेखर आज़ाद, राजेन्द्र लाहिड़ी, सचीन्द्र सान्याल, मन्मथनाथ गुप्त के साथ मिलकर लखनऊ के ‘काकोरी’ नामक स्थान पर रेल विभाग द्वारा ले जाई जा रही धनराशि को लूट लिया परंतु कैद होने हो जाने की वजह से उनको फांसी की सजा सुना दी गयी पर, वे तो इस अंजाम के जानते हुए ही आगे बढ़े थे तो बिना भयभीत हुये उन्होंने मौत का सामना करते हुये हंसते-हंसते अपने आपको फांसी चढ़वाना मंजूर किया १९ दिसम्बर, १९२७ को सुबह-सुबह बिस्मिल रोज की तरह ही ४ बजे उठे और नित्यकर्म, स्नान आदि के बाद संध्या उपासना की और जब फांसी पर चढ़ाने का बुलावा आया तो 'वन्दे मातरम' तथा 'भारत माता की जय' का उद्घोष करते हुए बिस्मिल सिपाहीयों के साथ चल पड़े और बड़े मनोयोग से गाने लगे-

मालिक तेरी रजा रहे और तू ही तू रहे।
बाकी न मैं रहूँ न मेरी आरजू रहे।।
जब तक कि तन में जान रगों में लहू रहे।
तेरा ही ज़िक्र या तेरी ही जुस्तजू रहे।।   

इस तरह उन्होंने देशहित में अपने प्राणों का उत्सर्ग जरुर कर दिया लेकिन ये देश उनकी इस शहादत को आज भी भुला नहीं हैं और आज उनकी जयंती पर उनका पुण्य स्मरण कर के उन्हें श्रद्धांजलि समर्पित करता हैं... जय हिंद... :) :) :) !!!
     
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© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)

११ जून २०१७

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