रविवार, 4 जून 2017

सुर-२०१७-१५४ : ‘गंगा’ और ‘गायत्री’ अवतरण दिवस आज... चुका न सकता जिनका ऋण ये मानव समाज...!!!


‘भारत’ देश की विशेषता यही हैं कि यहाँ पेड़-पौधों, नदी-तालाबों और पशुओं को भी पूज्य मानकर उनका सम्मान किया जाता लेकिन इसी का दूसरा पहलू ये भी हैं कि जिस बात का उसने पूरी दुनिया में ढिंढोरा पिटा और जिसके द्वारा उसकी संपूर्ण जगत में पहचान बनी वास्तव में वो केवल उसकी कथनी तक सीमित कि इस तरह की बातों से उसकी शान बढाती इसलिये वो इनको दोहराता पर, बात जब अमल की आती तो केवल गिनती के लोग ही इसको उसी तरह से कर्म में लाते जैसा कि वे धर्म से मानते यदि विचार करें तो पायेंगे कि हमारे बड़े-बुजुर्गो ने प्रकृति सरंक्षण के मूल उद्देश्य को जेहन में रखकर इस तरह की धारणायें समाज में प्रचलित की जिससे कि वो भय से ही सही उनका अनुकरण करे जिससे कि प्रकृति और संतति दोनों की सुरक्षा साथ-साथ हो सके क्योंकि उन्होंने विकासक्रम से कदमताल करते हुये ये रहस्य जान लिया था कि ईश्वर रचित इस संसार में कुछ भी व्यर्थ या औचित्यहीन नहीं सबकी अपनी उपयोगिता व महत्व हैं और कहीं न कहीं इनके बिना मनुष्य का जीवन संभव नहीं इसलिये बड़ी चतुराई से उसने नदियों-वृक्षों और जंगली जानवरों के साथ धार्मिक कथायें और मिथक जोड़ दी जिससे कि धर्म के नाम पर ही सही वो इनकी पूजा करें कि ये तो साक्षात् ईश्वर जो हमें जीवन का दान देते इन्हीं के सहारे तो प्रोगेतिहसिक काल में इंसान ने अपनी जान बचाई तब उसे ये ज्ञान प्राप्त हुआ कि सह-जीवन से ही कुदरत और हम लंबे समय तक कायम रहे सकते अफ़सोस कि जो बात उस प्राचीन युग में हमारे अनपढ़ अज्ञानी वनचर पूर्वजों ने जान ली थी उसे आज वैज्ञानिक तर्कों और समस्त प्रमाणों के बाद भी हम समझ नहीं पा रहे या ज्यादा जान चुके तो फ़िज़ूल के तर्क बोले तो कुतर्क लगाकर उन पुरानी मान्यताओं को गलत साबित करने का प्रयास कर रहे दूसरी तरह से देखें तो कहाँ तो हमने शून्य से शुरुआत कर एक-एक चीज़ को परखा उसके बारे में जानकारियां इकट्ठा की तो आज हम सिफर से सफ़र करते हुये शिखर पर पहुंचे परंतु २१ वीं सदी में पहुंचकर तकनीकी का साथ हासिल कर ये क्या खुद को ही गॉड मानने लगे और कुदरत की अनमोल नेमतों का अपने स्वार्थवश अकेले ही दोहन करने लगे

मनुष्य के इसी स्वार्थीपन की वजह से प्राकृतिक संपदा, वनस्पतियों और जीव-जंतुओं की ही नहीं रासायनिक तत्वों की भी न जाने कितनी प्रजातियाँ विलुप्त हो गयी औ न जाने कितनी सारी विलुप्ति की कग़ार पर खड़ी अपनी दुर्दशा पर आंसू बहा रही लेकिन अपनी मस्ती में हमें कुछ दिखाई नहीं दे रहा कि हम ये मानने लगे कि अब हम सब कुछ रच सकते जबकि हवा, पानी, आकाश, पृथ्वी या मौसम सब हमारे हाथों से बाहर की चीज़ और जब प्रकृति ठान ले कि प्रलय आना तो फिर कितनी भी तरह की मशीनें या यंत्रों का निर्माण हम कर ले वे सब उस दिन फेल हो जायेंगे अब भी अगर हम ये समझ जाये कि यदि हम ‘कुदरत’ के साथ ‘दोस्त’ की तरह बनकर रहेंगे तो फिर वो भी हमें उसी तरह प्रेम करेगी, किसी भी बुरे वक़्त में हमें सहायता देगी जैसा कि हम कई प्राकृतिक आपदाओं के दौरान देख चुके हैं ज्यादा दूर न जाकर कुछ समय पूर्व ‘केदारनाथ’ में आये भीषण तूफान को ही याद कर ले जिसकी वजह जीवनदायिनी ‘माँ गंगा नदी’ ही थी और इस हादसे में जिस तरह सृष्टि ने अपना रोद्र रूप दिखाया था उसके आगे हम हर व्यवस्था और अविष्कारों के बाद भी असहाय ही साबित हुये थे और जब तक बारिश होती रही हम केवल मूकदर्शक बन अपने साधनों के साथ बैठे रहे फिर जब तूफान थमा तो बचा बस, ‘शिवालय’ जिसकी नींव धरती के भीतर भी उतनी गहरी जितना कि उपर का भवन दिखाई देता तो हमें सबक मिला कि इस घटना को हम गंभीरता से लेकर आगे दुबारा से उसके साथ कोई छेड़छाड़ न करे वरना, कयामत के दिन हमारा अस्तित्व ढूंढे से भी न मिलेगा चलो एक पल को यदि मान भी ले कि किसी को ऐसा अवसर मिल भी जाये कि वो पृथ्वी के खजाने बचा सके तो बोलो क्या बचायेगा सब कुछ तो खा लिया या नष्ट कर दिया इसलिये इस बार यदि विनाश का दिन आता हैं तो कोई ‘नोहा’ या उसकी ‘नाव’ भगवान की बनाई जीवंत रचनाओं में से किसी को भी अपनी नौका में रखकर बचा न पायेगी क्योंकि सबको उसने खुद अपने ही हाथों से मिटा डाला उफ़, उस पर भी उसे थोड़ी-सी ही सही अक्ल आई हो किसी भी एंगल से देखकर ऐसा लगता नहीं हैं

आज भी ये जो हम लोग ‘गंगा दशहरा’ या ‘गायत्री जयंती’ मना रहे केवल औपचारिकता निभा रहे और जो कुछ भी वास्तव में करना चाहिये उसके लिये कोई ठोस कदम नहीं उठा रहे जबकि होना तो ये चाहिये कि हम केवल ‘गंगा’ ही नहीं बल्कि अपने-अपने क्षेत्र के जितने भी नदी-तालाब जो आज सूखकर अवशेष मात्र रह गये उनका पुनरुद्धार करने का बीड़ा उठाये और अपने साथ अन्य लोगों को भी जोड़ ले तो इससे बड़ी समाज सेवा कोई दूसरी हो नहीं सकती ऐसा कोई नगर या गाँव नहीं जहाँ पर कि कोई भी क्षेत्रीय नदी-तालाब न हो पर, हमारी अनदेखी और लापरवाही की वजह से उनका अस्तित्व संकट में आ गया जो हमारे लिये खतरे की घंटी की उनके साथ हम भी तो खत्म हो जायेंगे तो फिर क्यों न आज से ही इस दिशा में पहल करें और पूरे देश की जिम्मेदारी न लेकर केवल अपने-अपने शहर की इन अनमोल धरोहरों को बचाने में हम अपना योगदान दे । मैं केवल शाब्दिक बात नहीं कर रही बल्कि हमारे अपने ‘नरसिंहपुर’ में ही हम सब मिलकर यहाँ के तालाबों-नदियों हेतु इस तरह के प्रयास कर रहे जिनका हिस्सा बनकर ही ये ख्याल आया कि यदि सब अपने-अपने क्षेत्र में इस तरह की पहल करें तो फिर सारे राष्ट्र में इस मुहिम से नजारा बदल जायेगा और जो लोग आज पानी के लिये तरस रहे उनको अपने ही घर में ये उपलब्ध हो सकेगा । चूँकि हम ये समझते कि सारी जिम्मेदारी एकमात्र सरकार की तो रोजाना उसे कोस अपने कर्तव्यों से इतिश्री कर लेते उसी का नतीजा कि ‘स्वच्छता अभियान’ हो या ‘नर्मदा बचाओ आंदोलन’ सब कागजी कार्यवाही तक ही सीमित हक़ीकत में इनका कोई विशेष प्रभाव नजर नहीं आता कि इसमें हमारी हिस्सेदारी नगण्य जबकि कोई भी ‘अभियान’ सरकार आरंभ करें तो उसे सफल बनाने में हमारी भी भूमिका की भी आवश्यकता होती जिसको हम ख़ारिज कर देते कि यदि हम ये काम करेंगे तो जिस सरकार को हमने वोट दिये वो क्या करेगी और अपने मन में ये सोचकर खुश हो लेते कि यार, ये सब अपना काम थोड़े न हम अपने दूसरे कामों में लग जाते तो जो भी इस तरह की कार्यवाही होती उन्हें झूठे आंकड़ों के माध्यम से मीडिया में प्रचारित-प्रकशित कर सरकार भी छुट्टी पा लेती ।

यदि सभी सरकारी योजनायें वास्तविकता की धरातल में क्रियान्वित होती तो आज देश का स्वरुप ही कुछ और होता लेकिन हमने तो अपने आपको ‘वोटर’ समझ केवल ‘वोट’ देने तक ही समेट लिया जबकि हम भी इसी तंत्र का हिस्सा जिसके बिना ‘सिस्टम’ कोई काम नहीं कर सकता पर, हम तो निष्क्रिय मोड़ में पड़े तो ऐसे में बाकी के कलपुर्जे चल भी जाये अगर तो कोई फर्क न पड़ता कि ‘मीडिल पार्ट’ जो सबसे महत्वपूर्ण उसने तो कोई गतिविधि ही नहीं की सुप्तावस्था में पड़ा रहा कुछ उस तरह जैसे कि गेंहू डाले बगैर यदि चक्की को चलाये जाये तो पाट तो दोनों घूमेंगे लेकिन आटा नहीं निकलेगा तो हमें ये जान लेना हैं कि हम सबसे महत्वपूर्ण ‘हिस्सा’ जिसके बिना ‘गवर्मेंट’ कुछ भी नहीं पर, हम ये समझे कि हमारा काम केवल ‘मतदान’ के दिन ‘मत’ देना मात्र तो फिर हमारा ज्ञान भले, हमें रोजगार दिला दे लेकिन देश के किसी काम का नहीं कि देशसेवा केवल सैनिकों का कर्म नहीं हमारा भी हैं । हम कई तरह से ये सेवा कर अपने उस ऋण से मुक्त हो सकते जो इस स्वदेश ने हम पर किये चाहे वो अपने नगर की साफ-सफाई करना हो या नदी-तालाबों का सरंक्षण या पेड़-पौधे लगाना या पशु-पक्षी बचाना या फिर मुसीबत में पड़े लोगों की मदद करना या सरकार द्वारा जन-सहयोग से चलाये जा रहे अभियानों का सक्रिय हिस्सा बनना तब हम पायेंगे कि कार्यवाही केवल कागजों पर नहीं जमीन पर भी हुई जिसके हम स्वयं गवाह हैं और इस तरह के कामों में कोई ज्यादा वक़्त भी नहीं लगता केवल ठान लेने की देर हैं फिर हम योजनाबद्ध तरीके से टीम बनाकर इसे अंजाम दे तो हम पर अकेले बोझ भी नहीं पड़ता बारी-बारी से सब अपना कर्तव्य पूर्ण करते ये बात इतने दावे से इसलिये लिख पा रही हूँ कि ऐसी कई योजनाओं में सक्रिय भागीदारी कर हमने ये अनुभव किया है कि ‘जनता’ और ‘सरकार’ जब एक साथ मिलकर चलते तो फिर उनके कोई भी प्रयास निष्फल नहीं होते ।

हमारे इस तरह के संकल्पों को पूर्ण करने के लिये ऊर्जा हमें अपने ईष्ट देव या उन लोगों से से प्राप्त होती जो इस तरह निष्काम भावना से सेवा में लगे हुये और हम भी जब बिना किसी कामना के केवल देशहित में ऐसे सत्कर्म करते तो प्रकृति भी हमारी सहायक बन हमें सहयोग करती तो आज ‘गायंत्री मंत्र’ के जाप व दीपदान से अपने भीतर ऊर्जा उत्पन्न कर सिर्फ ‘गंगा’ ही नहीं अपने-अपने नगर की हर नदी, हर तालाब हर बावड़ी का जीर्णोद्धार करने का शुभ-संकल्प लेकर इस काम में जुट जाये तो वो दिन दूर नहीं जब हम विनाश की आशंकाओं को अपने मन से पूरी तरह से मिटा सकेंगे नहीं तो हर पल एक खौफ़ के साये में जियेंगे कि क्या पता कब दुनिया खत्म हो जाये या क्या पता हमारे बच्चों को शुद्ध पानी या हवा भी मिल पाये । जिस तरह हमारे पूर्वजों ने हमें जीवन ही नहीं जीने के साधन भी मुहैया कराये उसी तरह हम भी अपनी आगे की पीढ़ी को ये सब देकर जाये इस तरह के सार्थक क्रिया-कलापों से ‘गंगा दशहरा’ एवं ‘गायत्री जयंती’ मनाये... सबको अनंत शुभकामनायें... :) :) :) !!!
                               
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© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)
०४ जून २०१७

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