शनिवार, 12 अगस्त 2017

सुर-२०१७-२२२ : कभी-कभी कोई बद्दुआ... लगने लगती ‘दुआ’...!!!


‘दुआ’ जिस तरह कभी ‘बद्दुआ’ बन जाती उसी तरह ‘बद्दुआ’ भी कभी-कभी ‘दुआ’ लगने लगती लेकिन इसके लिये सही समय की दरकार होती जब हम इसको समझ सके कि हर बात हर वक़्त समझ नहीं आती बल्कि उसकी हक़ीकत तो धीरे-धीरे हमारे सामने आती तब अहसास होता कि जो हुआ वो अच्छा हुआ था जिस तरह कोई फल कच्चा हो तो उसके स्वाद में वो बात नहीं होती जो उसके पके होने पर महसूस होती कि वो तो मौसम के साथ-साथ जब अपने आप पकता तब उसके भीतर वही स्वाद, वही रस बनता जबकि उसे उतनी अवधि दी जाती जितनी कि उसको सुस्वादु बनने के लिये आवश्यक होती परंतु अमूमन हमारी अधीरता और अपरिपक्वता इस गम्भीरता को समझ नहीं पाती और हम कच्चे फल को ही खाने की जिद करने लगते और उसे पाकर खुश होते लेकिन जब उसकी वजह से हमारे भीतर कोई विकार पैदा होता तब हम ये मानने को तैयार होते कि हमने जल्दबाजी की हमें थोडा इंतजार करना था...

‘स्मिता’ बहुत दुखी रहती थी कि उसे कोई संतान न थी जबकि उसकी देवरानी ही नहीं उसकी बहनों और आस-पास सभी के बच्चे थे तो उसने भी इनमें ही अपनी ख़ुशी देखना शुरू कर दिया था बस, कभी-कभी मन उदास हो जाता कि काश, उसका भी अपना कोई एक ही सही बच्चा होता पर, न तो किसी दुआ, न ही किसी चमत्कार से उसकी ये आरजू पूरी हो सकी तो उसने भी किस्मत से समझौता कर अपने मन को मना लिया और दूसरे के बच्चों को ही अपना प्यार देने लगी तभी उसकी देवरानी के दोनों बच्चों की तबियत खराब होने की वजह से उनको अस्पताल में भर्ती कराना पड़ा जहाँ अस्पताल वालों की लापरवाही से उनकी ही नहीं उनके साथ भर्ती अन्य कई बच्चों की असमय ही मौत हो गयी जब उसने ये खबर न्यूज़ चैनल पर सुनी तो नंगे पांव ही दौड़ी चली गयी और वहां सारे बच्चों के माता-पिताओं की जो हालत देखी तो खुद को सम्भालना मुश्किल हो गया...

जब होश आया तो खुद को घर पर पाया जहाँ चारों तरफ चीख-पुकार और रोना मचा हुआ था जिसे सुनकर वो फिर बिस्तर पर गिर पड़ी कि जो कुछ उसने देखा-सुना वो सपना नहीं सच था तो इस असलियत ने उसे बीमार ही बना दिया पर, फिर भी उसने जैसे-तैसे खुद को संभाला और देवरानी के कमरे में गयी तो उसे देखकर घबरा गयी कि अपने दोनों लाल को खोकर वो एक लाश समान दिखाई दे रही थी उस पर प्रशासन की दो-टूक बयानबाजी जख्म पर नमक छिड़क रही थी जिसने उसके भीतर एक लावा खौला दिया कि सरकार उन बच्चों की मौत पर अफ़सोस प्रकट करने या अपनी जिम्मेदारी मानने की जगह इस तरह से लीपापोती कर उनकी तकलीफों को बढ़ा रही हैं उसने इस अन्याय के विरुद्ध आवाज़ उठाने की ठानी और मीडिया में अपनी बात रखी जिसके बढने पर सरकार से लड़ाई लेने के कारण उसके पति और देवर को अपनी नौकरी खोनी पड़ी तो देवरानी उससे ही लड़ पड़ी कि दीदी आपके तो बच्चे थे नहीं न हो सकते फिर क्यों आप हमारे मामले में अपनी टांग अड़ा रही इनकी नौकरी ही अब सहारा थी तो वो भी अपने छीन ली ये सुनना था कि ‘स्मिता’ को लगा वो आसमान से जमीन पर गिर पड़ी आज उसे अपने माँ न होने का दर्द कम महसूस हुआ कि उससे बढ़कर दुःख उसकी झोली में आ गया था                
_______________________________________________________
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)

१२ अगस्त २०१७

कोई टिप्पणी नहीं: