रविवार, 27 अगस्त 2017

सुर-२०१७-२३७ : निर्देशक ‘हृषिकेश मुखर्जी’ और गायक ‘मुकेश’... जीना इसी का नाम हैं का देते संदेश...!!!


फ़िल्मी दुनिया ही नहीं विभिन्न क्षेत्रों में अक्सर ऐसा होता कि दो अलग-अलग स्थानों में जनम लेने वाले दो भिन्न प्रकृति के लोग जीवन के किसी मोड़ पर अचानक टकरा जाते या कहे कि मिल जाते और फिर जोड़ी बनाकर कुछ ऐसा अनोखा काम कर जाते कि कभी-कभी तो दो नाम एक बन जाते तो कभी भले इस तरह से एकाकार न भी हो पर, एक-दूसरे से उनका ऐसा रिश्ता बन जाता कि दोनों की रचनात्मकता से कुछ नायाब शाहकार निर्मित हो जाता जो ये दर्शाता कि यदि कभी प्रतिभाओं का मिलन होता जो अपना अहम् किनारे पर रखकर एकजुट हो एक दिशा में काम करते तो फिर उन दोनों के जेहन की काबिलियत से ऊर्जा का एक ऐसा विशाल मंडल आकार लेता जिससे बनने वाली कृति को सफलता मिले न मिले लेकिन जो रचना पैदा होती निसंदेह वो कमाल की होती कि यहाँ दो हुनरमंद शख्सियत ने अपनी पूरी सृजन क्षमता को निचोड़कर उसे बनाया होता हैं  कुछ ऐसा ही अभूतपूर्व अनोखा रचा गया हिंदी सिने जगत के रजत पर्दे पर जब कोलकाता में जन्मे और अपनी निर्देशन क्षमता से साधारण पारिवारिक मूल्यों वाली असाधारण फ़िल्में बनाने वाले ‘हृषिकेश मुखर्जी’ जिन्हें कि प्यार से सभी ‘हृषि दा’ बुलाते थे ने अपनी निर्देशित फिल्मों के गायन में किरदारों के लिये उस जमाने के लोकप्रिय राज कपूर की आवाज़ के रूप में जाने जाने वाले दिल्ली में जन्मे संवेदनशील हरदिलअजीज गायक ‘मुकेश चंद माथुर’ जिन्हें कि हम सब सिर्फ ‘मुकेश’ के नाम से जानते हैं से मिले तो उन दोनों की संगत से कुछ अधिक दिलकश तराने हमें सुनने को मिले      

ये भी एक संयोग हैं कि इन दोनों का जन्म एक ही कालखंड में हुआ जिसमें केवल एक ही साल का अंतर हैं कि जहाँ ‘हृषि दा’ १९२२ में तो ‘मुकेश साहब’ १९२३ में इस धरा पर आये और जाने का क्रम भी उल्टा रहा कि ‘मुकेश’ पहले तो ‘हृषि दा’ बाद में गये लेकिन यहाँ उनके अलविदा कहने का दिन एक ही था बोले तो आज याने कि २७ अगस्त को परंतु इस दरम्यान उन्होंने अपनी ईश्वरप्रदत्त प्रतिभा से हम लोगों को कुछ ऐसे गाने और फिल्मों की सौगात दी जिसने हमारे जीवन से जुडकर हमारे सामान्य पलों को अनमोल बना दिया तो उनके जाने के बाद भी हम उनके निर्देशित चरित्रों और उनकी मखमली आवाज़ से सजे नगमों से अपनी तन्हाई में भी मुस्कुरा उठते हैं ‘हृषि दा’ ने सारे जीवन ऐसी फ़िल्में निर्देशित की जो हमारे अपने आस-पास नजर आने वाले वास्तविक चरित्रों को पर्दे पर साकार करती रही और ऐसे परिस्थितिजन्य अवसर उत्पन्न किये जो देखने वालों के लबों पर अनायास ही मुस्कान बिखरते रहे तभी तो आज भी उनकी वो फ़िल्में चाहे वो ‘अभिमान’ हो या ‘चुपके-चुपके’ या ‘नमक-हराम’ या ‘सत्यकाम’ या ‘अनुपमा’ या ‘अनुराधा’ या फिर ‘अनाड़ी’ सभी आज भी उतनी ही असरकारक कि उनमें जिन कहानियों को दिखाया गया वे वर्तमान काल में भी प्रासंगिक है इसी तरह ‘मुकेश’ आरंभ से ही अपनी दर्द भरी आवाज़ और अपने दिल को छू लेने वाले गीतों की वजह से सबके प्रिय बन गये और उनके गाये गीत ज्यादातर भावुकता से भरे होने के कारण सबको अपने ही दुःख-दर्द की प्रतिध्वनि प्रतीत होते जिनसे वो अपने टूटे हृदय पर सुरीला मरहम लगाते और उस पीड़ा को भूलाने का प्रयास करते जिसने उनके जिगर को जख्मी किया कि ‘मुकेश’ की आवाज़ में वो कशिश और शिद्दत थी जो सुनने वाले की आँखों में तरावट लाती तो सीने में सुकून का अहसास दिलाती थी

जब इन दोनों ने एक साथ काम किया तो ‘हृषि दा’ के मध्यमवर्गीय किरदारों ने ‘मुकेश’ की दर्दीली आवाज़ के साथ यूँ ताल से ताल मिलाई कि एक के बाद एक ११ फिल्मों ‘आनंद’, ‘अनाडी’, ‘आशिक’, ‘’बीबी और मकान’, ‘चुपके-चुपके’, ‘छाया’, ‘नौकरी’, ‘फिर कब मिलोगी’, ‘सत्यकाम’, ‘मेम दीदी’ और ‘मधुमती’ और २४ गीतों में उनकी जुगलबंदी नजर आई और ये फ़िल्में सिने इतिहास के पन्नों पर अपना नाम दर्ज करवा गयी जिन्हें विस्मृत कर पाना मुमकिन नहीं कि इनकी कहानियां, इनके कलाकार और पात्र सभी हमारे नजदीक के ही लोग जिन्होंने हमारे ही लफ्जों को अपनी आवाज़ और अपने अभिनय से यूँ संवारा कि उनसे हमारा एक अटूट नाता बन गया जो आज भी उसी तरह से बरक़रार हैं यदि याद न आ रहा हो तो याद दिलाये अक्सर शाम को जब सूरज ढलता दिखाई देता तो जुबान में अपने आप ही ‘कहीं दूर जब दिन ढल जाये...’ गीत आ जाता तो यात्रा करते समय ‘सुहाना सफ़र और ये मौसम हसीन हमें डर हैं हम खो न जाये कहीं...’ गाकर थकन भूल जाता और इसी तरह जब दुनियादारी की बात समझ न आये तो लोग ‘सब कुछ सीखा हमने न सीखी होशियारी सच हैं दुनिया वालों के हम हैं अनाड़ी...’ कहकर अपनी फ़ितरत जताते तो कभी अपनी प्रेमिका के लिये प्रेमी के होंठो पर ‘कहीं करती होगी वो मेरा इंतजार जिसकी तमन्ना में फिरता हूँ बेकरार...’ थिरक जाता तो कभी प्रेमिका की राह तकता कोई पुकार उठता ‘दिल तड़फ-तड़फ के कह रहा हैं आ भी जा...’ तो कभी ‘दिल की नज़र से नजरों की दिल से ये बात क्या हैं...’ पूछता दिखाई देता तो कभी रात में चाँद को देखकर ‘वो चाँद खिला वो तारे हंसे ये रात अजब मतवारी हैं...’ गाकर मन बहलाता तो कभी आँखों में आँखें डालकर कहता ‘ये तो कहो कौन हो तुम, कौन हो तुम...’ और कभी ‘बागों में कैसे ये फूल खिलते हैं...’ गुनगुनाता तो कभी कभी अपने किसी प्रिय को ‘मैंने तेरे लिये ही सात रंग के सपनें बुने, सपनें सुरीले सपने...’ जैसे गाने की सौगात देता तो कभी उसी के लिये ‘तुम जो हमारे मीत न होते गीत ये मेरे गीत न होते...’ भी गाता और सबसे बढ़कर इंसानियत को दर्शाता ‘किसी की मुस्कुराहटों पे हो निसार, किसी का दर्द मिल सके तो ले उधार किसी के वास्ते ही तेरे दिल में प्यार जीना इसी का नाम हैं...’ से अपने मनोभावों का प्रदर्शन करता और इस तरह से उन दोनों महान आत्माओं को अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करता... :) :) :) !!!    
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© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)

२७ अगस्त २०१७

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