शुक्रवार, 18 अगस्त 2017

सुर-२०१७-२२८ : हर एक दिल का मौसम... जिनके अल्फाजों से रहता सदाबहार ऐसे शब्दों के जादूगर ‘गुलज़ार’...!!!


 ये जो तुमने खुद को बदला हैं
ये बदला हैं या ‘बदला’ हैं...

एक शब्द के इस तरह से मानी बदल देना कि सहज लगती बात भी अचानक गहरे अर्थ में बदल जाये सबके बस की बात नहीं कि उसके लिये शब्दों को महज़ लिखना नहीं बल्कि जीना होता हैं और जिसकी रगों में ही लहू नहीं जज्बात बहते हो तो उसकी कलम से फिर क्यों न रूह के अहसास भी शब्दों के लिबास पहनकर सफों पर उतर आये तो अपनी कलम से कुछ ऐसे ही नाज़ुक विचारों को अलहदा ढंग से अभिव्यक्त किया ‘सम्पूर्ण सिंह कालरा’ ने जिन्हें हम ‘गुलज़ार’ के नाम से अधिक जानते हैं कि उनके लिखे शब्दों से हर किसी के दिल में सोये हुये अरमानों की बगिया खिल जाती हैं जिसमें दर्द भी फूल बनकर मुस्कुराते हैं तो बैचेनियों को करार आ जाता हैं   

इक छोटा-सा लम्हा हैं जो खत्म नहीं होता
मैं लाख जलाता हूँ मगर, भस्म नहीं होता

तन्हाई की पीड़ा को यूँ दो पंक्तियों में बयान कर पाना सबके बूते की बात नहीं कि लम्हों की इस चुभन से गुजरना भी पड़ता हैं तब कहीं जाकर अल्फाजों में भी वो टीस उतर पाती हैं जो पढने वाले के जिगर को चाक कर देती हैं तभी तो शायद, ही कोई ऐसा संवेदनहीन व्यक्ति हो जो ‘गुलज़ार’ के लिखे का मुरीद न हो कि जीवन का ऐसा कोई भी अनुभव नहीं जिसे उन्होंने शब्द न दिए हो और शब्द भी कोई ऐसे-वैसे नहीं बल्कि इस तरह से उलझे हुये कि उन्हें सुलझाते-सुलझाते सुनने वाला अपना ही गम भूल जाये और ये सोचने लगा कि किस तरह से कोई उसकी भावनाओं को इस तरह से अभिव्यक्त कर सकता हैं जिसे सिर्फ महसूस किया जाता हैं लेकिन ‘गुलज़ार’ तो हैं ही शब्दों के जादूगर जो बातों-बातों में ही साधारण सी लगने वाली बात को भी असाधारण बना देते हैं

लहज़ा शिकायत का था मगर,
सारी महफ़िल समझ गयी
मामला मुहब्बत का हैं....

इस तरह से जुबान से कहे जाने वाले लहजे के जायके को भी हूबहू उसी तरह से लिख पाना कहाँ सबके लिये संभव हैं कि लोग उस तल्खी या चुभन को भांप लेते लेकिन जब बात आती उसे उसी तरह से कह देने की तो बगलें झाँकने लगते कि जुबां तो बहुत कुछ बोलती हाले दिल भी खोलती लेकिन उसके बाद भी कुछ अनकहा रह जाता उसी अनकहे को शब्द दे पाना ही तो कारीगरी जो सबको थोड़े आती किसी-किसी पर ही रब की वो मेहरबानी होती जो ‘गुलज़ार’ साहब पर छप्पर फाड़कर की गयी हैं तभी तो उम्र के इस दौर में जबकि अमूमन कलम चूक जाती अल्फाजों ही नहीं अहसासों का खज़ाना भी खत्म होने लगता वे हैं कि ‘दिल तो बच्चा हैं जी’ या ‘कजरारे... कजरारे... तेरे काले-काले नैना’ या ‘नैना ठग लेंगे’ या ‘नमक इश्क़ का’ या ‘बीडी जलाई ले जिगर से पिया’ या ‘चल छैया-छैया..’ या ‘जय हो...’ जैसे अलग तरह के गीतों की न सिर्फ रचना कर देते हैं बल्कि ‘ऑस्कर अवार्ड’ जीतकर देश का नाम भी पूरे विश्व में रोशन कर देते हैं

मेरा गोरा अंग लई ले, मोहे श्याम रंग दई दे
छुप जाउंगी रात ही में मोहे पी का संग दई दे

‘बंदिनी’ फिल्म में लिखा या उनका पहला गीत ही उनके अंदर छिपी असीमित प्रतिभा को ज़ाहिर करता हैं जिसे अवसर मिलने पर वो इस तरह से उभरकर सामने आई कि अभी भी उसमें अपार संभावनायें शेष और ये तो केवल एक गीत ऐसे अनगिनत गीत हैं जिन्हें सुनकर मन ही नहीं तन भी झूम जाता जमीन पर पाँव ही नहीं पड़ता और लब गुनगुनाते लगते ‘बोलो देखा हैं कभी तुमने मुझे उड़ते हुये...’ और जेहन ये सोचने में मजबूर हो जाता कि कोई कैसे इस तरह से अनवरत अलहदा सृजन कर सकता और कभी-कभी तो रश्क भी होता कि हम क्यों नहीं उस तरह से सोच पाते या लिख पाते जिसे तरह से उनके दिमाग में न केवल कोई ख्याल आता बल्कि वो उनकी कलम से निकलकर कुछ इस तरह से अपना आकार लेता कि अनायास ही मुंह से वाह... वाह... निकल जाता हैं

क्या बात हैं बड़े चुपचाप से बैठे हो
कोई बात दिल पे लगी हैं या दिल लगा बैठ हो...

दिल की बातों को यूँ हौले से कह जाना और ‘सिर्फ़ अहसास हैं ये रूह से से महसूस करो..’ प्यार को यूँ परिभाषित करना कि उसके आगे हर परिभाषा कमतर लगने लगे ‘गुलज़ार’ ही कर सकते थी तो हम सब उनसे इस कदर प्यार करते और आज उनके जन्मदिन पर यही कामना करते कि वो सालों-साल तक से ही हमारे हृदय की कोमल भावनाओं को अपनी कलम के जरिये लिखते रहे और आने वाली पीढ़ी को भी अपना दीवाना बना जाये क्योंकि आसान नहीं ‘गुलज़ार’ बन पाना वो तो बस एक ही हैं... उन-सा लिखने की कोशिश तो कइयों ने की लेकिन कोई दूसरा ‘गुलज़ार’ न बन पाया कि ‘यूँ ही नहीं कोई गुलज़ार बन जाता...” जन्मदिन मुबारक गुलज़ार साहब... :) :) :) !!!            

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© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)

१८ अगस्त २०१७

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