मंगलवार, 29 अगस्त 2017

सुर-२०१७-२३९ : महर्षि दधिची ने किया अस्थियों का दान... आज के ढोंगी-बाबा करते भक्तों का रक्तपान...!!!


साधु-संतों की ये पूजनीय धरती जहां अनेकानेक महान विभूतियों ने जन्म लेकर इसका परचम देश-विदेश में लहराया और इसे ‘विश्वगुरु’ के शीर्ष आसन पर विराजमान किया हैं परंतु, आज तथाकथित बाबाओं व ढोंगियों ने इन साधकों की अथक मेहनत से अर्जित ख्याति को ही कलंकित नहीं किया बल्कि अपने दुष्कर्मों से देश का नाम भी बदनाम किया उससे भक्त समुदाय खुद को ठगा महसूस कर रहा हैं क्योंकि उसके भीतर सहज ही आध्यात्मिकता का वास होता जिसकी वजह से वो आसानी से अपनी बुद्धि को दरकिनार कर उस पर सरलता से विश्वास करने लगता कि उसकी प्राकृतिक आस्था शंकाओं से दूर रहती ऐसे में जब उसे ठेस लगती या उसके मन में बसा श्रद्धा का मंदिर टूटता तो साथ उसके न केवल वो टूट जाता बल्कि किसी और पर भी विश्वास करने के लायक नहीं रह जाता जबकि वो नकली बाबा अपमानित होकर भी अपने जुर्म को कुबूल नहीं करता

ऐसी परिस्थितियों में ‘महर्षि दधिची’ की जयंती को उत्साहपूर्वक मनाना और भी अधिक प्रासंगिक हो जाता कि उनकी कथा हम सबको ‘ऋषि’ शब्द का वास्तविक अर्थ बताती कि किस तरह पुरातन काल में हमारी इस पूजनीय भारत भूमि पर कभी चारों तरह वेद-पुराणों के सूत्रों का गान होता था जिससे समूचा वातावरण पवित्र होकर सुनने वाले के मन-मस्तिष्क को भी पवित्र बना देता था और इनमें जो सच्चे सन्यासी होते थे वे समाज से दूर किसी जंगल में जाकर कठोर तप करते थे । उनकी इस तपस्या का उद्देश्य समाज कल्याण होता था कि वो अपने तपोबल व अपनी कठोर साधना से कुछ ऐसा हासिल कर सके जिससे उनके देशवासियों का हित हो दूसरे शब्दों में कहे तो वे वन के एकांतवास में अपनी मानसिक तरगों से एक अदृश्य प्रयोगशाला निर्मित करते जहाँ वे तरह-तरह की खोज करते और कई तरह के प्रयोग करते जिससे फिर कोई ऐसा नवीनतम अस्त्र या शस्त्र निर्मित करते जिसके माध्यम से वो संकट काल में अपने देश के लोगों का कल्याण कर सके ।

ऐसी ही कठोर तपस्या की थी अथर्वा ऋषि के पुत्र ‘दधिची’ ने भी जिससे उनके देह की हड्डियाँ इतनी मजबूत और बलशाली हो गयी थी कि उसे किसी हथियार की तरह इस्तेमाल किया जा सके तो जब स्वर्ग में ‘वृत्तासुर’ नाम के राक्षस का आतंक बढ़ गया तो उसको परास्त करने का एकमात्र उपाय यही था कि ‘महर्षि दधिची’ की अस्थियों से एक ‘वज्र’ बनाया जाये जिससे उसका संहार किया जा सके क्योंकि उसके सिवा किसी दूसरे साधन से उसकी मृत्यु हो नहीं सकती थी तो देवताओं ने इस काज हेतु उनसे मदद मांगी । ‘महर्षि दधिची’ के तो जीवन का उद्देश्य ही यही था कि वे जगत के काम आ सके तो जब देवताओं ने उनसे उनके देहदान की प्रार्थना की तो उन्होंने हंसी-ख़ुशी से लोक-कल्याण व धर्म संस्थापना हेतु अपने आपको ही समर्पित कर दिया और इस तरह उन्होंने ऋषि परंपरा को कायम रखते हुए ये सन्देश दिया कि एक सच्चा साधू वो होता जो अपनी अर्जित शक्तियों से अपना नहीं बल्कि अपने देश का भला करता हैं जबकि आज के ये ढोंगी बाबा लोग तो अपने सिवा किसी का भी हित नहीं करते तो ‘महर्षि दधिची’ की गाथा से उनको ये याद दिलाना कि भेष धरना तो आसान हैं ऋषि-मुनियों का लेकिन उन जैसा त्याग-समर्पण और परोपकार की भावना को भगवा चोले की तरह ओढ़ा नहीं जा सकता इसलिये इनसे बचिये... पहले इनको परखिये तब इन पर विश्वास करिये न कि अंधभक्त बनिये... यही ‘महर्षि दधिची’ की जयंती का संदेश और उद्देश्य... सबको शुभकामनायें... :) :) :) !!!     
        
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© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)

२९ अगस्त २०१७

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