बुधवार, 23 अगस्त 2017

सुर-२०१७-२३३ : जब बच सकते गुनाह से... फिर क्यों धंसते जा रहे दलदल में...???



जिसे देखो वही उस मौके की तलाश में रहता जबकि वो अपने गुनाहों को किसी दूसरे के उजले दामन में पौंछ खुद को बेदाग साबित कर सके कि आलम ही कुछ ऐसा कि जाने-अनजाने या फिर चाहे-अनचाहे ही कुछ ऐसा करना पड़ता जो मन को अपराधबोध से भर देता लेकिन जब यही सब बार-बार लगातार होता जाता तो फिर अंतर की वो पवित्र भावना न जाने कब तिरोहित हो जाती और इंसान गलतियों का अभ्यस्त हो जाता यही वजह कि छोटे-मोटे भ्रष्टाचार उसकी रगों में इस कदर घुल चुके कि वो खुद ही आगे बढकर अपनी सुविधा के लिये रिश्वत जैसे कृत्य खुद करता और पता ही न चलता कब अनजाने दलदल में धंस जाता...

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अपनी
गलतियों का
ठीकरा फोड़ने
जब तक हो किसी का सर
.....
अपने
शत्रुओं को
मारने के लिये
जब तक हो किसी का कंधा
.....
अपने
सलीब को
ढोने के लिये
जब तक हो किसी की पीठ
.....
अपनी
करनी की
सजा भुगतने के लिये
जब तक हो किसी के फैले हाथ
.....
अपने
गुलामी की
जंजीर बाँधने
जब तक हो किसी के पाँव
.....
अपने
किये की
तोहमत लगाने
जब तक हो किसी का नाम
.....
आदमी
बड़ा बेफिक्र
अपराधबोध से मुक्त
खुद को हर इलज़ाम से
बरी समझता हैं...
.....
पर...
उपरी अदालत में तो
न चलते ये तर्क ये दलील
फिर वो क्यों खुद को
बेगुनाह साबित करने इतनी
जद्दोजहद करता हैं
.....
एक पाप से बचने
कोई दूसरा पाप करता हैं ।।
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इस दौड़ती-भागती दुनिया में जहाँ दूसरे को गिराकर खुद को आगे बढ़ाने की जद्दोजेहद में सब लगे हो तब किस को होश को उसके पैरों के नीचे जमीन हैं या फिर किसी का सर उसे तो बस, येन-केन-प्रकरण शीर्ष पर पहुंचना ऐसे में जरूरी कि तनिक रुककर विचार करे इससे पहले कि पूरी तरह से डूब जाये... देर ही हुई हैं अभी अंधेर तो नहीं... :) :) :) !!!
  
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© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)
२४ अगस्त २०१७

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