सोमवार, 14 अगस्त 2017

सुर-२०१७-२२४ : ‘भारतमाता’ की जय बोलते... पर, देश की रगों में ज़हर घोलते...!!!



‘जय हिंद’
‘वंदे मातरम’
‘इंकलाब जिंदाबाद’

सिर्फ...
समझा ही नहीं
किया आत्मसात जिसने इसको
उनके दम पर हमने
आज़ादी का तोहफा पाया
साल दर साल
बीत गये सात दशक
बोलते रहे जुबान से इसको
दोहराते रहे ये जयघोष
सोचो हमने देश को क्या लौटाया ???

ये याद दिलाने
हम सबको हर वर्ष
आते हमारे पावन 'राष्ट्रीय पर्व' ।।
--------------------------------------●●●

आज़ादी की एक और वर्षगाँठ की पूर्वसंध्या आ गयी यदि हम आज बैठकर ये आंकलन करे कि दो-सौ वर्षों की गुलामी जो हमने फिरंगी सरकार के अधीन गुजारी उससे मुक्त हुये लगभग ७० बरस होने जा रहे हैं उसके बाद जब हमने अपने देश की बागडोर अपने हाथों में ली तो उसके बाद हम कितने आगे बढ़े या सिर्फ़ सियासत में ही बदलाव आया जिसमें शीर्ष पर बैठे लोगों ने जमीनी कम कागज़ी ज्यादा कार्यवाही द्वारा देश को बेहद समृद्धिशाली और विकासशील दर्शाया लेकिन हकीकत में वो बदलाव किसी को भी उतना नजर नहीं आया जितना का कि नेताओं ने शोर मचाया तो कहीं न कहीं ये अहसास होता कि हमने भी तो महज़ मतदान को ही अपना नैतिक कर्तव्य माना और वोट देने के बाद अपनी जिम्मेदारियों से पल्ला झाड़ लिया कि अब तुम्हारे हवाले वतन मंत्रियों चाहे जैसा भी इसे चलाओ तो फिर शिकायत किस मुंह से करते जबकि हम अपना फर्ज़ नहीं समझते हमें तो सिर्फ़ संविधान से प्राप्त अपने अधिकारों का ही ज्ञान मातृभूमि व भारत माता के प्रति हमारा कोई दायित्व भी बनता इसका कोई भान नहीं...  

●●●----------
सबको चाहिये
सिर्फ़ मौलिक अधिकार
जिसे फिर बना के
स्वार्थ की दोधारी तलवार
कर सके किसी पे वार
पर, नहीं कर्तव्य की दरकार
कि कभी देश कर्ज भी दे उतार
जिसने हमको दिया
आज़ादी का अनुपम उपहार
बिना कर्तव्य पालन
अधिकार की कामना करना
कुछ वैसा ही लगता
जैसे कपूत केवल बैठे-बैठे ही
अथक मेहनत से कमाई
बाप-दादा की पैतृक संपत्ति में से
अपनी पैदाइश का हक मांगे ।।
------------------------------------●●●

हम जब भी परतंत्रता की बात करते तो महज़ इन्ही दो-सौ ढाई सौ बरसों का ही हिसाब करते जब हम अंग्रेजों के गुलाम रहे लेकिन असलियत में देखें तो हम केवल २००-२५० नही बल्कि दो हजार से अधिक लम्बे समय तक किसी न किसी के शासन में ही रहे और अपना शासन तो हमने १५ अगस्त १९४७ को ही पाया लेकिन उसके बाद से ही देख रहे कि इस देश में केवल ७० सालों में ही ऐसी स्थिति आ गयी कि हम उस दर्द, उस तकलीफ को भूलकर इस कदर अपने आप में गुम हो गये कि इस देश में हम सबके बीच जो भाईचारा और अजनबी रिश्तों में भी जो गर्माहट थी वो तो विलुप्त हुई ही साथ अपने आपसी रिश्ते-नातों में भी प्रेम-प्यार का अहसास कम हो गया और इस रसायन के कम होने की वजह खोजे तो मूल में खुद का आत्मकेंद्रित होना ही पाते जिसने हमें इतना स्वार्थी बना दिया कि हम सयुंक्त परिवार से एकल परिवारों में टूट गये एक विभाजन वो था जो अंग्रेज सरकार की देन था और एक ये हैं जो हम खुद दिन-ब-दिन अपने अपनों के बीच करते जा रहे और परिवार के साथ-साथ अपने देश के भी अनगिनत टुकड़े करते जा रहे याने कि एक तरह से स्वयं अपनी ही जड़ों को काट रहे...      

●●●------------
'आज़ादी' अच्छी
जब मिले शासक के
बिछाये जाल से
जो बचा सके हमको
ज़ालिम के बेहिसाब जुल्मों से
पर,
घर, रिश्तों
समाज, परिवार
नैतिकता, मर्यादा
संस्कृति, सभ्यता, परंपरा
जिम्मेदारी, जवाबदारी के
मोहपाश से खुद को
छुड़ा स्वछंद विहार करना
कोई 'आज़ादी' नहीं
बल्कि...
जीवन मूल्यों की 'बर्बादी' हैं ।।
------------------------------------●●●

अब तो केवल रस्म-अदायगी को लोग इन पर्वों को मनाते, राष्ट्रीय ध्वज फहराते, जन-गण-मन गाकर भारत माता की जय बोलते लेकिन भीतर से कुछ भी न महसूसते जबकि ‘वंदे मातरम’ गीत जिसे कि ‘बंकिमचंद्र चटर्जी’ ने ७ नवम्वर १८७६ को रचा वो भी विरोध में कि उस समय  ब्रिटिश शासकों ने सरकारी समारोहों में गॉड! सेव द क्वीनगीत गाया जाना अनिवार्य कर दिया था तो ऐसे में ‘बंकिम जी’ जो एक ‘डिप्टी कलेक्टर’ थे ने सरकारी अधिकारी होने के बावजूद भी इसकी न केवल रचना की बल्कि स्वाधीनता संग्राम में इसका भरपूर उपयोग भी किया गया जिसकी वजह से उनकी किताब ‘आनंद मठ’ जिसमें कि इस गीत को लिखा गया था सरकार द्वारा प्रतिबंधित कर दिया गया लेकिन फिर भी इसे उस दौर के सभी क्रांतिकारियों द्वारा अपनाया गया यही वजह कि आज़ादी के बाद इसे ‘राष्ट्रीय गीत’ के रूप में स्वीकृत किया गया तथा २००२ में ‘बी.बी.सी.’ के एक सर्वेक्षण के अनुसार वंदे मातरम्को विश्व का दूसरा सर्वाधिक लोकप्रिय गीत माना गया परंतु, इसके बाद भी ये देखने में आता कि इस देश में ही रहने वाले कुछ देशद्रोही इसे गाने या इसका उच्चारण करने से इंकार कर देश की रगों में विद्रोह का जहर घोलते... और जब तक इनका हृदय परिवर्तन न होगा देश विभाजन का सिलसिला कभी बंद न होगा और हम फ़कत नाम को ही आज़ाद कहलायेंगे कि जात-पात, धर्म-मजहब की बेड़ियों में तो अभी भी जकड़े हैं         
_______________________________________________________
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)

१४ अगस्त २०१७

कोई टिप्पणी नहीं: