रविवार, 13 अगस्त 2017

सुर-२०१७-२२३ : ‘अहिल्या बाई होल्कर’ की जुबानी जाने फेमिनिज्म की सशक्त कहानी...!!!


ये कोई आज की नहीं बल्कि आज से तीन सौ-साल पुरानी कहानी नहीं... नहीं, हक़ीकत हैं जिसे यदि हम आज के फेमिनिज्म के नजरिये से देखे तो अहसास होता कि जिस ‘महिला सशक्तिकरण’ की बात आज हर जगह की जा रही या जिस ‘स्त्रीवाद’ को आज का फैशन बताया जा रहा वो सब तो दरअसल इसी भारत भूमि की जड़ों में बसा हुआ हैं जबकि लोग ऐसे बताते जैसे कि भारत तो बड़ा पिछड़ा देश जहाँ के लोग औरतों को नगण्य समझते हैं और इस बात का प्रचार इतना ज्यादा कि खुद औरतें भी इसे ही सच समझती हैं ऐसे में जरूरी कि उनको ऐसी महान नारियों की गाथायें याद दिलाई जाये जिन्होंने अपने दम पर न केवल अपने आपको बल्कि अपनी शख्सियत को अपने किरदार से इस कदर साबित किया कि फिर वे सबके लिये एक मिसाल बन गयी वो भी उस जमाने में जबकि जमाना बहुत पीछे था पर, नारियां तब भी बहुत आगे थी और सिर्फ घर की चारदीवारी ही नहीं बल्कि जंग के मैदान में भी अपने जौहर दिखाती थी, केवल सज-श्रृंगार से ही अपने आपको नहीं सजाती थी बल्कि ढाल, कवच भी उतनी ही शान से पहनती थी और केवल कलछी-बेलन ही नहीं तीर-तलवार भी उतनी ही कुशलता से चलाती थी जबकि आज केवल जुबान या कलम ही का जोर हैं जिसे ‘सोशल मीडिया’ जैसे हवाई मंच पर बेहद बढ़-चढ़कर प्रस्तुत किया जा रहा हैं

‘अहिल्या बाई होल्कर’ एक ऐसे नाम जिसे मध्यप्रदेश के लोग तो बखूबी जानते हैं उसमें भी इंदौर के लोग तो इसे बिसरा ही नहीं सकते कि कभी उनके पति महाराज ‘मल्हारराव होल्कर’ ने ही इस राज्य की स्थापना की थी और फिर उनकी असमय मृत्यु के बाद उन्होंने न केवल इसकी बागड़ोर अकेले अपनी काबिलियत के दम पर थामी बल्कि उसका कुशल संचालन भी उतनी ही दक्षता से भी किया । आज की फेमिना की तरह वे केवल मुंह नहीं चलाती थी और न ही महिलाओं की आज़ादी का दुरपयोग करती थी बल्कि अपनी स्त्री मर्यादा के साथ वे अपनी वीरता का भी उतने ही जोश से प्रदर्शन भी करती थी याने कि फेमिनिज्म के नाम पर महज़ मनमर्जी करना या वस्त्रों में ही स्वतंत्रता की पक्षधर नहीं थी बल्कि अपने भारतीय परिधान को धारण करने के अलावा पूजा-पाठ भी उतनी ही श्रद्धा से करती थी तो अपनी परम्पराओं का मख़ौल बनाने की जगह उनकी अनिवार्यता और वैज्ञानिकता को स्वीकारती थी । जबकि आज तो ‘फेमिनिज्म’ के नाम पर सिर्फ और सिर्फ मनमानी करने की आज़ादी चाहिए स्त्रियों को किसी नैतिक दायित्व या अपने कर्तव्यों का पालन नहीं करना कि उन्हें तो ये भी एक बंधन लगता जबकि देखा जाये तो इसी में हमारी पहचान निहित अन्यथा हममें और विदेशी महिलाओं में कोई फर्क न रह जायेगा तो ऐसे में इन आधुनिकाओं को हमारी भारत भूमि में जन्मी ऐसी विदुषी वीरांगना से परिचित होने की आवश्यकता जिन्होंने अपने स्त्रीत्व सहित अपने भीतर की शक्ति से दुनिया को परिचित करवाया ।   
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© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)

१३ अगस्त २०१७

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