‘प्रेम’ भी न,
‘विक्रम’ पर लदे ‘बेताल’ सरीखा
एक अदृश्य सवार होता हैं
जो हमारी पीठ ही नहीं
दिलों-दिमाग पर भी लदा रहता हैं
जिसे हम किसी जंगल
या किसी अंजान ठिकाने पर
छोड़कर भी भाग नहीं सकते हैं
जिसके पूछे गये सवालों से
जानते-बुझते हुये किसी तरह भी
मुंह नहीं मोड़ सकते हैं
चुप भी रहना
संभव नहीं होता हमारा कि
एक नादानी हमारी जान भी ले सकती हैं
हर हाल में बस,
जो कुछ भी वो कहे
हमें तो चुपचाप ही सुनते रहना हैं
जैसा भी या जो भी
कहे वो हमसे
मंत्रमुग्ध हो सब करते जाना हैं
फिर भी आजीवन हम
उससे ही बंधे रहते
किसी तरह पीछा नहीं छुड़ा सकते हैं
कि हर दिन, हर रात
उसका साथ मन को लुभाता
उसके बिना कहीं भी दिल लगता नहीं
वो होकर भी ‘बेताल’
हमें बिना ताल के ही नचाता हैं
हम जान ही न पाते
हमने कब खुद आगे बढ़कर उसे बुलाया
जब बुल ही लिया तो फिर
भुगतो जीवन भर किस बात का रोना हैं
‘विक्रम’ की तरह आजीवन उसको ढोना हैं
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© ® सुश्री
इंदु सिंह “इन्दुश्री’
नरसिंहपुर (म.प्र.)
१८ सितंबर २०१७
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