(मासूम प्रद्युम्न
को शब्दांजलि)
‘ईश्वर’
निराश नहीं हुआ
ज़ारी हैं नूतन सृजन
पर, हार गयी
एक ‘माँ’
कि कोख़ में तो
सुरक्षित रख सकती
मैं
मगर, दुनिया में
लाकर फिर
किस तरह इंसानी
राक्षसों
कामुक जानवरों से
रक्षा करूं अपनी
जायी संतान की
किस तरह और किस-किस से बचाऊं उसे ?
नवजात हो
या हो किशोर
या फिर नव-जवान
कोई भी तो नहीं बच रहा
इन निर्दयी दरिंदों से
घरों में भी सुरक्षित नहीं कोई
कि वासना भरी नजरें
घूरती रहती छिप-छिपकर
और मौका पाकर करती हमला
क्षणिक दैहिक सुख के लिये
कितनी बर्बरता कर रहा
इंसानी खोल में छिपा दैत्य
इतनी अमानवीय हो गया वो कि
चीख-पुकार और बेबसी भी
रोक न पाती उसे करने से दरिंदगी
आखिर, कैसे रुकेगी ये पाशविकता ??
न पढ़ा
न सुना
कभी कोई
ऐसा वहशी दानव
जिसने जलाया हो बचपन
धधकती कामाग्नि तले
कि देखकर जिन्हें
उभरनी चाहिये वात्सल्यता
किस तरह देह में हिलोरें मारती
बेकाबू होती कामुकता
हो न हो इसमें
कहीं न कहीं जिम्मेदार हैं
पुरातन परम्पराओं-रिवाजों
पावन भारतीय संस्कारों का विलोपन
सयुंक्त परिवारों का विघटन
और ये आधुनिक तकनीक
ये यत्र-तत्र बिखरा और सहज उपलब्ध
नीला ज़हर जो भर रहा रगों में
बना रहा नर को कामी
छीन रहा विवेक, संयम, नैतिकता
अब भी न गर, रोका गया इसे
न लगाई गयी पाबंदी ‘पोर्न’ पर तो
दूर नही वो दिन जबकि
मिट जाये भेद हर एक रिश्तों का
हट जाये शर्म का नाज़ुक पर्दा
शेष रहे बस, देह और देह की भूख
वो भूख जो नहीं जानती
कुछ भी सिवाय खुद को मिटाने
और ना ही मानती
कोई सामाजिक बंधन या नियम
तो फिर क्यों न बैन करे
ऐसे माध्यमों को जो नग्नता, अश्लीलता
और गंदगी फैला रहे
एक स्वच्छता अभियान चलाये जाये
इन यत्रों पर और घरों और गंदे दिमाग में
निकालकर फेंक दिया जाये कामुकता का कचरा
आग लगा दे इसे कि ख़ाक हो जलकर
ताकि न जला सके फिर किसी भी निर्दोष को
यही एकमात्र कारगर उपाय शेष
अन्यथा इंसानियत के न बचेंगे अवशेष ॥
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© ® सुश्री
इंदु सिंह “इन्दुश्री’
नरसिंहपुर (म.प्र.)
०९ सितंबर २०१७
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