बुधवार, 6 सितंबर 2017

सुर-२०१७-२४७ : पितृपक्ष में यूँ करें तर्पण... श्रद्धा से मनोभाव करें अर्पण...!!!



जिस घर में
बुजुर्गों का साया नहीं होता
उस घर में
भले सब हो मगर, मन खुश नहीं होता
…..
कि अनुभवों का खज़ाना
और कांपते हाथों का आशीर्वाद
इससे बढ़कर नहीं
दूजा कोई भी सरमाया होता हैं ।।
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पश्चिमी सभ्यता के अंधानुकरण में अब हमारे घरों में से तुलसी का बिरवा भी गायब हो गया उसकी जगह मनीप्लांट या गुलाब हर घर में नजर आने लगा जो कि ने केवल हमारी धार्मिक आस्था से जुड़ हैं बल्कि हमारे स्वास्थ्य के लिये भी फायदेमंद हैं तभी तो हर घर में इसे लगाने की परंपरा शुरू से रही हैं । इसी प्रकार घर के बाहर शौचालय या स्नानागार बनाना भी बड़ी ही दूरदर्शिता ख्याल हैं जिसे नकारकर हम अपने कमरों में ही इसे न सिर्फ़ बना रहे बल्कि 'वेस्टर्न स्टाइल' में बनवाकर अपनी मानसिक गुलामी का परिचय दे रहे गोया कि हम ये नहीं सह सकते कि कोई किसी भी बात में हमें कम समझे इसलिये हमने अपने घरों का बाहरी और अंदरूनी नक्शा ही बदल डाला जो किसी विदेशी घर का एक नमूना नज़र आता क्योंकि अब तो सबके यहाँ मोड्यूलर किचन, ए.सी, हीटर और हर तरह के गेजेट्स होते हैं पर वो अपने भारतीय घर जिनमें अपनापन झलकता था बुजुर्गों की स्मृति बसी होती थी उनकी ही तरह अतीत बन गया । आगे बढ़ना अच्छी बात हैं, सभ्य और आधुनिक होना भी बढ़िया हैं लेकिन अपने आप को भूल जाना अपनी मिटटी से दूर हो जाना ये किस तरह की आधुनिकता हैं जिसमें हम अपना ही नुकसान कर रहे और वो लोग हमारी इस कमजोरी का फायदा उठाकर अब हमारे ही संस्कारों के वैज्ञानिक महत्व तलाश कर उसे अपना रहे जिससे कि हमारी तरह निरोगी रहकर पारिवारिक सुख ले सके और हम अपने परिवारों को तोड़कर 'न्यूक्लियर फैमिली' बना रहे, 'लिव इन' में रहकर, अपने माता-पिता को ओल्ड ऐज होम में भेजकर अपनी प्राचीनतम संस्कृति का मजाक उड़ा रहे जहाँ हर एक संस्कार और रीति-रिवाज का अपना ही वैज्ञानिक महत्व हैं I  
 
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बुजुर्गों से ही तो
घर-आँगन आबाद होता हैं
बचपन को भी
वृद्धों का सरंक्षण प्राप्त होता हैं
…..
हर एक जीवन को
एक दिन घूमकर वापस यही आना
तो फिर क्यों लोगों को
ये बुढ़ापा अभिशाप लगता हैं ।।
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अब घर तो नजर आते लेकिन उनके आंगन में पोते-पोतियों से खेलते बुजुर्ग नजर नहीं आते यहाँ तक कि उनके न रहने पर किये जाने वाले पितृ कर्मो के ही प्रति लोगों की श्रद्धा दिखाई देती कि अपनी सुविधा के हिसाब से आज के लोग हर परंपरा और रीति-रिवाज़ को तोड़ते-मरोड़ते या नकारते रहते कि जीते-जी जिनके पास अपने माता-पिता को देने समय नहीं वो भला उनकी मृत्यु के बाद के क्रियाकर्मों के लिये किस तरह से वक़्त निकालेगा तो इसे ढकोसला या गैर-जरुरी रवायत कहकर पल्ला झाड़ना ज्यादा उचित व सहूलियत वाला निर्णय लगता इस तरह से जहाँ एक तरफ़ खुद को एडवांस कहला लेते वहीँ दूसरी तरफ उन विधि-विधान का पालन करने से भी बच जाते तो आजकल के नौजवानों का यही तौर-तरीका हैं हर उस रस्म के प्रति जो उसे बोझ प्रतीत होती तो उससे पीछा छुड़ाने ये बहाने करता फिर कभी कुछ अनहोनी हो जाती तो पितृदोष की पूजा में अधिक समय व धन व्यय करता लेकिन जब उसे करना चाहिये तब नहीं करता जबकि इसे अपने तरीके से करने वो अपने पितरों के नाम पर पौधारोपण भी कर सकता इस तरह से उन्हें लंबे समय तक न केवल कागोर के जरिये अपनी संतान से श्राद्ध पक्ष के बिना भी श्रद्धा प्राप्त होती रहेगी... :) :) :) !!!
    
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© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)
०६ सितंबर २०१७


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