शनिवार, 23 सितंबर 2017

सुर-२०१७-२६४ : प्रेम दीवानी ‘मीरा’ तब ही बनना... जब चाहो कृष्ण जैसा साथी पाना...!!!



यूँ तो बचपन में महज़ बात को टालने अनजाने में ही ‘मीरा’ की माँ ने उससे कह दिया कि उसके पति मुरली मनोहर घनश्याम हैं और बस, बात उसकी कोमल हृदय में उसी तरह से जम गयी जिस तरह उर्वरा भूमि में बरगद का बीज अंकुरित होकर जब अपनी जड़ें जमा लेता हैं तो फिर धीरे-धीरे इतना विशालकाय हो जाता कि उसके नीचे कोई दूसरा पौधा या पेड़ पनपने नहीं पाता वही सब पर छा जाता कुछ ऐसा ही पनपा था कृष्ण के प्रति अबोध नादान भोली-भाली ‘मीरा’ का प्रेम भी जो पल-पल के साथ इतना गहरा हुआ कि फिर उसे उसके मन से हटा पाना संभव ही नहीं हुआ और उस प्रीत के आगे किसी दूसरे को कभी भी आने का हौंसला न हुआ कि ये कोई बचपन की नादानी नहीं बल्कि अपने प्रियतम के प्रति मीरा की दीवानगी थी जो बढ़ती उमर के साथ दिनों-दिन बढ़ती ही जा रही थी

इसका रंग भी ‘श्याम’ की ही तरह पक्का था जिस पर फिर कभी कोई दूसरा रंग चढ़ने की कोई गुंजाईश शेष नहीं थी कि उसके हृदय की दीवारों पर सिर्फ़ एक ही नाम अंकित था जिसकी गूँज उसके कानों में सदैव प्रतिध्वनि बनकर गूंजती रहती थी तो फिर कोई दूजा नाम भी भला किसी तरह से सुनाई देता ‘मीरा’ की चाहत तो सिर्फ और सिर्फ ‘मनमोहन’ थे जिसके सिवा न तो किसी दूसरे का ख्याल, न नाम और न ही प्यार उनको कभी छू सका उनके जीवन में तो चारो तरफ ‘सांवरे सलोने’ ही आसमान की तरह छाये हुये थे तो वो भी भूमि की तरह अपलक उनको ही निहारती रहती बिना किसी प्रतिदान के अपना सर्वस्व उसको समर्पित कर प्यार की ऐसी मिसाल दूसरी कोई मिलती नहीं जहाँ निःस्वार्थ भावना और बिना किसी अपेक्षा के प्रेम नहीं भक्ति की गयी कि उनके अंतर में ‘कृष्ण’ एक प्रेमी नहीं देवता के रूप में विराजमान हो गये थे और यही मुहब्बत की वो पराकाष्ठा या ऊँचाई थी जिस पर पहुँचने के बाद ‘प्रेम’ की भावना ‘पूजा’ में परिवर्तित हो जाती हैं तो फिर अपने साथी को सशरीर न पाकर भी उसकी मौजूदगी का अहसास होता जबकि दैहिक प्यार में तो कभी-कभी सब कुछ पाकर भी खालीपन का ही अहसास होता क्योंकि वहां प्रेम को शिद्दत से महसूस ही नहीं किया जाता केवल आंतरिक अनुभूतियों को मुहब्बत का नाम दे दिया जाता ये जाने बिना कि इनमें गहराई कितनी हैं

इसलिये तो ऐसा उथला प्रेम अपने आप ही बिखरकर समाप्त हो जाता लेकिन जब यही आत्मा को बैचेनी की बजाय सुकून देने वाला हो तो उसके बाद कोई अन्य कामना बाकी न रहती यही वजह कि जिसने इसे पा लिया वो ‘मीरा’ की तरह अपने प्रेमी से कोई शिकायत करता नजर नहीं आता बल्कि पूर्ण रूप से भरा उसका मानस दूसरों के जीवन में प्रेमरस घोलता इसलिये हम जब भी ‘मीरा’ की ये अनोखी प्रेम कहानी सुनते जहाँ इकतरफा प्यार भी अधूरा नजर नहीं आता कि ‘मीरा’ में ही ‘मोहन’ भी समाये हुये हैं तो यदि चाहती हो ‘मीरा’ बनना तो ध्यान रखना कि तुम्हारा साथी भी ‘कृष्ण’ जैसा ही पूर्णावतार होना चाहिये अन्यथा प्रेमाग्नि तुम्हें ही जलाकर ख़ाक कर सकती हैं कि उस पर मेहबूब के प्रेमिल छींटों की दरकार होती हैं फिर चाहे वो पास हो या दूर उसकी निकटता महसूस हो जिस तरह ‘मीरा’ ने की और आजीवन ‘गिरधर गोपाल’ का ही गान किया जबकि आजकल तो प्रेम घड़ी की सुइयों की तरह पल-पल बदलता रहता उसमें कहीं ठहराव आता ही नहीं कि हर किसी को अपनी चाहत के बदले अगले से वही आस होती और जो न मिले तो अगले की तलाश में नजरें घुमा ली जाती कि इतना वक़्त ही नहीं जो किसी एक पर ही खर्च कर दिया जाये ऐसे में उन प्रेम कहानियों ने आज भी अपने आपको हिमालय समान कायम रखा हैं        
          
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© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)

२४ सितंबर २०१७

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