बुधवार, 27 सितंबर 2017

सुर-२०१७-२६८ : ऐसे मनाओ हर एक त्यौहार... गरीबों को भी खाने मिले पकवान...!!!



हम केवल उस देश के वासी नहीं हैं जिस देश में गंगा बहती हैं बल्कि जहाँ कि संस्कृति और परम्पराओं का दुनिया भी गुणगान करती कि यहाँ न केवल विभिन्न संप्रदाय के लोग आपस में मिलकर रहते बल्कि अपने तीज-पर्व को भी मिलकर मनाते और पूरे देश को एक परिवार की तरह ही समझते जहाँ कोई किसी से भेदभाव नहीं करता हालाँकि दिनों-दिन जिस तरह के हालात बनते जा रहे एकात्म दर्शन का ये सिद्धांत महज़ किताबी बातें या इतिहास का कोई अनोखा अध्याय लगता सहज ही विश्वास नहीं होता कि कभी देश में इस तरह के दृश्य भी नजर आते थे जब हर धर्म के लोग एक साथ मिलकर अपने उत्सवों का आयोजन करते थे यहाँ तक कि यदि किसी की आर्थिक स्थिति अच्छी न हो तो उसे भी ये अहसास न होने देते थे और जो कुछ भी अपने घर बने वो उसके साथ ख़ुशी-ख़ुशी साँझा करते थे जो इन उत्सवों के आयोजन की ख़ुशी को द्विगुणित कर देता था ये उस दौर की बात हैं जब हर घर का मुखिया ये सोचता था...

सांई इतना दीजिये जा में कुटुंब समय
मैं भी भूखा न रहूँ न साधू भूखा जाय

इसलिये खाने के वक़्त कोई भी घर में पधार जाये तो फिर भले ही भोजन कम हो लेकिन मन में किसी तरह का असमंजस या परेशानी का भाव नहीं होता था कि उन्हें अपने अतिथि धर्म का पालन करना आता था जिसे हर तरह निर्वह किया जाना ही गृह-स्वामी का फ़र्ज़ होता था लेकिन अब इस तरह की स्थिति की कल्पना भी संभव नहीं लगती क्योंकि अब तो न मेहमान का आना ही किसी को भाता न ही उसके लिये कुछ भी करने का ही किसी के हृदय में ही कोई भाव होता बल्कि सब यही सोचते कि जितनी जल्दी हो ये यहाँ से चला जाए उस पर यदि उनके पास खाने का कोई बढ़िया सामान हैं तो फिर तो उसे इस तरह से उसकी नजरों से छिपाते कि उसे खुशबू तक न आये जबकि कभी इसी देश में हर घर में पहली रोटी गाय की तो आखिरी कुत्ते की बनाई जाती थी और जो भी जिस वक्त आ जाए उसके लिये दिल ही नहीं रसोई के दरवाजे भी खुले होते थे फिर चाहे चूल्हा ही जलाकर दुबारा खाना पकाना पड़े पर, बेहिचक ये करते थे

हर तरह के आयोजनों में भी गरीबों का विशेष ध्यान रखा जाता था कि उन्हें भी उतना ही मिले जितना उनकी जरूरत और वही जो उनकी थाली में परोसा गया हैं और अब तो सब आत्मकेंद्रित होते जा रहे हैं जिनको अपने सिवाय कोई नजर न आता इसलिये वे जो भी करते उसका केंद्र बिंदु उनका अपना परिवार ही होता और जो भी धर्म-कर्म करते वो भी सिर्फ और सर्फ अपने परिजनों के लिये ही होता तभी तो न सिर्फ नव दुर्गा या कोई भी उत्सव हो विशेष तरह के खाद्य बनाकर ईश्वर को समर्पित किये जाते जिसका उद्देश्य खुद की मनचाही मुराद प्राप्त करना होता जबकि यदि वे यही भोज्य पदार्थ यदि किसी भूखे और जरुरतमन्द को अर्पित कर दे तो वो साक्षात् भगवान् को ही प्राप्त होगा तो इस नवरात्र हम यही संकल्प ले कि कन्या भोज में भी उन कन्याओं को ही भोग परोसे जो वाकई इसकी सुपात्र तथा अष्टमी या नवमी पर हम जो भी मिष्ठान्न या खीर-पुड़ी-हलवा लेकर जाते वो भी भगवन को चढ़ाने के बाद मन्दिर के बाहर हाथ फैलाये खड़े किसी भूखे को ही दे ताकि उसका सार्थक उपयोग हो सके और इस तरह न हम किसी भूखे की मदद कर पायेंगे बल्कि प्रसाद को सीधे प्रभु का निवाला बना सकेंगे... यहीतो वास्तव में इन धार्मिक आयोजनों का मूल उद्देश्य होता हैं जिस हम भूलकर खुद में मगन होते जा रहे हैं... तो अपनी परम्पराओं को मरने न दे भूखा किसी को सोने न दे... :) :) :) !!!
             
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© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)

२७ सितंबर २०१७

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