शनिवार, 2 सितंबर 2017

सुर-२०१७-२४३ : “बकरा ईद बनाम मानव ईद”



‘ईद’ एक उत्साहसूचक शब्द हैं जिसको सुनते ही मन में ख़ुशी का अहसास होता क्योंकि ये एक पवन पर्व के आगमन का संदेश देता लेकिन इसी के साथ जब ‘बकरा/बकरी’ जुड़ जाता तो जेहन में अचानक ही ये ख्याल चला आता कि ये जरुर कोई ऐसा पर्व होता होगा जबकि बकरों की पूजा कर उनको मनचाहा भोजन कराया जाता होगा जैसे कि अनेक पर्व होते जो कि जानवरों से जुड़े जिनमें उनको सजाया जाता फिर उनका विधिवत पूजन किया जाता लेकिन जब इसके विषय में ये बताया जाता कि इसे ‘बकरीद’ इसलिये कहा जाता कि इस दिन बकरी / बकरे की बलि दी जाती तो दिमाग चकरा जाता कि जब इस दिन उनकी जान ली जाती तब इसे ‘बकरी ईद’ की जगह ‘मानव ईद’ क्यों नहीं कहा जाता कि इस दिन तो ख़ुशी इंसान मनाता न कि जानवर वो भी उसकी मौत का दिन तो फिर उसकी जान लेने वाला दिन आखिर किस तरह से किसी के लिये हर्ष-उल्लास का अवसर हो सकता कोई कितने भी तर्क-कुतर्क दे दे कोई भी गले नहीं उतरता कि किसी को मारकर जश्न मनाना केवल शैतान का काम हो सकता किसी इंसान का कतई नहीं वो भी उसे एक झटके में नहीं धीरे-धीरे हलाल करना पाशविकता के सिवाय कुछ भी नहीं फिर भी एक साथ अनेक जगह इस तरह का त्यौहार मनाया जाता जो कि वास्तव में इंसानियत की हार हैं

सही मायनों में ‘बकरी ईद’ तब होगी जब बकरी को काटा न जायेगा अभी तो इंसानों की ईद होती तो फिर इसे ‘मानव ईद’ क्यों नहीं कहा जाता क्योंकि ‘बकरी’ के लिये तो ये दिन ‘कत्ल की रात’ बोले तो ‘मोहर्रम’ का ही होता जब उसकी गर्दन पर छूरी चलाई जाती उसे तड़फा-तड़फा कर मारा जाता और उसकी मौत पर लोग एक-दूसरे को बधाई देते आखिर किस तरह से कोई संवेदनशील आदमी ऐसा घिनौना काम कर सकता ये तो केवल वही कर सकता जिसके भीतर क्रूरता का वास हो कि ममता भरा हृदय और प्यार से किसी को सहलाने वाले हाथ तो किसी की गर्दन पर तलवार या चाक़ू चला ही नहीं सकते लेकिन जिसके भीतर की भावनायें मर चुकी हो और जिसे दूसरे को तडफाने में मज़ा आता हो केवल वही इस दर्दनाक कृत्य को अंजाम दे सकता और वो कोई मानव नहीं दानव ही हो सकता क्योंकि मानवीयता से भरा हुआ मानव तो इस तरह की कल्पना से भी सिहर जाता वो तो जान-बुझकर किसी चींटी तक भी पैर नहीं रख सकता फिर गर्दन को रेतना तो एकदम असंभव और वो भी उसे जिसे प्रेम से पालता-पोसता सोचने पर भी ऐसी बात किसी तरह समझ में नहीं आती कि अपने पालतू जानवर को भी कोई इतनी निर्दयता से नहीं मार सकता चाहे फिर कोई भी वजह समाने क्यों न हो तो फिर इस तरह कोई ऐसा करता है

अपने बच्चे के जन्म पर हर माँ खुश होती हैं लेकिन एक नहीं वो होती हैं ‘बकरे’ की क्योंकि उसके जन्म से ही उसे उसका हश्र मालूम होता तो फिर किस तरह से वो खुश हो उसका तो पल-पल खौफ़ इ बीतता कि न जाने कब उसके बच्चे को मार दिया जाये जरूरी नहीं कि वो दिन ईद का ही हो ये तो आदमी का मिज़ाज कि कब उसकी जुबान मचल जाए और उसकी जान पर बन आये तभी तो कहा जाता कि ‘बकरे की माँ कब तक खैर मनायेगी’ एक दिन तो उसकी जान जायेगी तो ऐसे में इसे ‘बकरी ईद’ कहकर कम से कम उनकी भावनाओं की तौहीन न की जाये कि उनके लिये तो ये दिन ख़ुशी का न होकर मातम का होता हैं

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© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)

०२ सितंबर २०१७

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