बुधवार, 20 सितंबर 2017

सुर-२०१७-२६१ : देवी की भिन्न मूर्तियाँ... करती स्थापित स्त्री की छवियाँ...!!!



भारतीय स्त्रियों के मानक निर्धारित करने में देवी की विभिन्न मूर्तियाँ जिस तरह से अहम् भूमिका निभाती हैं वैसा पुरुषों की छवियों प्रति देवताओं की प्रतिमाओं का प्रभाव हमारे समाज में दृष्टिगोचर नहीं होता क्योंकि कहीं न कहीं ये मान लिया गया कि स्त्रियाँ चरित्र को लेकर जितनी दृढ और सशक्त होती उतना पुरुषों के द्वारा संभव नहीं तो आदिकाल से ही स्त्रियों ने अपनी मजबूत इच्छाशक्ति के दम पर इस धारणा को उतना ही पुष्ट किया जितना कि उनसे अपेक्षा की गयी थी लेकिन, पुरुष से न कोई उम्मीद थी और न ही किसी तरह का दबाब तो उस लचीलेपन ने उसे कमजोर बना दिया तभी तो कितनी भी मुश्किलें या बुरे हालात आये उनका सामना जिस तरह से एक औरत करती उस तरीके से एक पुरुष नहीं कर पाता कि पीढ़ी दर पीढ़ी उसके जींस में इस नकारात्मकता को प्रवाहित किया गया कि वो कोई नारी नहीं जिसे अपने चरित्र को लेकर सतर्क व सजग रहना हैं कि एक जरा-सी गलती भी उसे दूसरों की नजरों में गिरा सकती हैं

इस गलत बात ने उसे थोड़ा लापरवाह बना दिया जो कभी-भी किसी जगह कोई भी व्यवहार या अपनी मर्जी ज़ाहिर कर सकता क्योंकि उसे स्त्री की तरह न तो फूंक-फूंक कर कदम रखना हैं और न ही अपने साथ होने वाले किसी भी दुर्व्यवहार पर शर्मिंदा होना हैं बल्कि वो तो स्वयंभू ही नहीं औरत का स्वामी भी हैं तो जहाँ देवियों की कथा-कहानी और उनकी शक्तिशाली प्रभावी छवियों ने स्त्रियों को उनकी ही तरह मजबूत बनाया वहीं पुरुषों की ज्यादतियों व खुद को उसका मालिक समझने की दुष्प्रवृति ने उसके अंदर सोई दुर्गा को भी जगा दिया जिसका परिणाम ये हुआ कि वो तो खुद को न सिर्फ़ सीता, सावित्री, लक्ष्मी, सरस्वती साबित कर पाई बल्कि काली बनकर दुष्टों को संहार भी कर सकी कि सदियों से चली आ रही इन मान्यताओं ने उसके भीतर ममता, धैर्य, संयम, संवेदनाओं जैसी कोमल भावनाओं का संचार तो किया ही साथ-साथ उसमें साहस, बल, दृढ़ता का इस्पात भी उसकी रगों में भर दिया

इस शक्ति के बूते पर वो समाज के तथाकथित ठेकेदारों व उसे मारने वाले दानवों का भी मुकाबला कर सकी और उन पारंपरिक झूठी बेड़ियों को तोड़ने में भी कामयाब हुई जिनका भय दिखाकर वो उसे एक निश्चित दायरे में रखना चाहता था जब तक वो नासमझ, भोली और उस पर आश्रित थी उसकी चाल समझ नहीं पाई लेकिन जब खुद के वास्तविक स्वरुप को पहचाना तो फिर अपने आस-पास बिखरे उसके जाल को काट बाहर निकली और धरती से लेकर आसमान तक सब छू लिया क्योंकि अब उसने अपनी अंदरूनी ताकत जान ली थी । वो समझ चुकी थी कि ‘देवी’ होने का मतलब महज़ खुद को चारदीवारी में कैद कर के रखना नहीं बल्कि जब जहाँ जिस तरह के गुण की आवश्यकता हो उस जगह उसे ही उपयोग में लाना हैं यदि घर के भीतर रहते हुये ‘अन्नपूर्णा’ या ‘सीता’ की तरह अपने दायित्वों का निर्वाह करना हैं तो बाहर जरूरत पड़ने पर ‘चंडी’ का रूप भी धारण करना हैं          

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© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)

२० सितंबर २०१७

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