सोमवार, 13 नवंबर 2017

सुर-२०१७-३१४ : ‘बाल-दिवस’ आ रहा... बचपन याद दिला रहा... : ०३ !!!



सत्यकाम जाबाल, प्रह्लाद, आरुणि, उपमन्यु, एकलव्य, लव-कुश, अभिमन्यु, श्रवण कुमार जैसे वीर प्रतापी, भक्त और ज्ञानी बालक-बालिकाओं का नाम आज किसने सुना तथा राम, कृष्ण, हनुमान, पांडव, परीक्षित, धन्ना जाट, गणेश, भीष्म, शिवाजी, शंकराचार्य, अष्टावक्र, वल्लभाचार्य, राममोहन राय, सुकरात, रविन्द्रनाथ ठाकुर आदि के बाल चरित्र को किसने पढ़ा आज के बच्चों के आदर्श तो कोई कार्टून कैरक्टर या फिर फ़िल्मी अभिनता-अभिनेत्री होते तो ऐसे में वास्तविक नायक अनदेखे रह जाते उस पर माहौल कुछ इस तरह का निर्मित किया जा रहा कि एक तरफ अपने ऐतिहासिक किरदारों को काल्पनिक बताकर कम आँका जा रहा तो दूसरी तरफ खलनायकों या दुष्ट पात्रों को नायक की तरह प्रस्तुत कर उसके कद को रियल हीरो के कद से ऊंचा बनाया जा रहा जो बच्चों के कोमल दिलों-दिमाग को इस कदर प्रभावित कर रहा कि वे इस झूठ को ही सच समझ रहे कि पढ़ने की जेहमत उठाना या सच को जानने का उनके पास समय नहीं हैं फिर सच्चाई को जान पाये तो किस तरह कि उसे जानने में रुझान भी तो नहीं जिसका फ़ायदा ये शातिर जमकर उठा रहे हैं      

शायद, ये आखिरी नस्ल होगी जो अपने इतिहास से न केवल परिचित हैं बल्कि भरसक प्रयत्न कर उसे सामने लाने का भी प्रयत्न कर रही हैं जिससे कि ये पीढ़ी जिसे ढंग से अपनी भाषा बोलना भी नहीं आता न ही अपने धर्म या अपनी जड़ों का ही ठिकाना मालूम वो भला किस तरह से अपनी परम्पराओं, संस्कृति और अपने रीति-रिवाजों को सहेज पायेंगे उनके लिये तो सोशल मीडिया या व्हाट्स एप्प पर प्राप्त भ्रामक संदेश ही जानकारी का मुख्य स्त्रोत यही वजह कि उनसे प्राचीन सभ्यता से संबंधित प्रश्न पूछे जाये तो बगलें झांकते नजर आते जबकि रट्टू तोते की तरह अंग्रेजी में चाहे जो भी पूछ लो उनका अर्थ समझे बिना भी वो उसे दोहरा देंगे लेकिन हिंदी के महीने, गिनती, पहाड़े या देश के गौरवशाली अतीत के बारे में नील बटे सन्नाटा जो इस पीढ़ी के प्रति निराशा का ही भाव जगाता हैं परिवारों में भी अब बच्चों को उस तरह के संस्कार नहीं दिए जा रहे तभी तो नमस्कार, पैर छूने, जमीन पर बैठकर खाने, रिश्तों की कद्र, बड़ों का सम्मान, ईश्वर नमन, प्रार्थना जैसी सामान्य आदतें भी विलुप्त होती जा रही अब तो हाय, हेलो, हाथ मिलाना, विदेशी भाषा और परिधान को अपनी शान समझना इन सबने कहीं न कहीं हमें अपनी मिट्टी से दूर किया हैं इसलिये इनका अपने देश से तक कोई लगाव नहीं जिसके लिये कभी नन्हे-मुन्ने बच्चों तक ने अपने प्राण गंवा दिये पर, आज के ये नौजवान तो उन्हीं देशभक्तों को गरियाते और अपने उन महानायकों पर अविश्वास करते जिन्होंने अपनी मातृभूमि की आन, बान, शान के लिये अपने बारे में तक नहीं सोचा पर, जिस वजह से गर्व से सर ऊंचा होना चाहिये उस पर ही आज के ये बच्चे शर्माते हैं

जिन घरों में भारतीय संस्कृति की जगह पूरी तरह से पाश्चात्य सभ्यता को अपना लिया गया हैं वहां के बच्चे तो ख्वाब में भी खुद को विदेश में ही देखते और जिस तरह का खान-पान, परिधान, बोलचाल ये इस्तेमाल करते उनसे कहीं से भी वो भारतीय नजर नहीं आते कि इनका तो अंतिम लक्ष्य पढ़-लिखकर विदेशी मिटटी में जाकर बसना हैं जबकि, कभी इस देश के बालक-बालिकायें अपनी धरती को ही अपना सबकुछ समझते थे पर, जिस तरह से इस पर पाश्चात्य सभ्यता का रंग चढ़ रहा यही अहसास हो रहा कि कुछ मूलभूत सिद्धांतो में तो किसी तरह का भी घालमेल स्वीकार्य नहीं होना चाहिये वरना, विदेशी तो शुद्ध हम कॉकटेल नजर आयेंगे... इससे बचने का उपाय यही कि बचपन से उनकी रगों में भारतीयता के रंग उसी तरह घोल दिये जाये जैसे पुराने जमाने में होता था तभी ये निर्दोष मासूमियत बरक़रार रहेगी और ‘बाल दिवस’ मनाने की प्रासंगिकता भी... :) :) :) !!! 
   
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© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)
१३ नवंबर २०१७


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