गुरुवार, 30 नवंबर 2017

सुर-२०१७-३४१ : आई ‘मोक्षदा एकादशी’... लाई अपने साथ ‘गीता जयंती’...!!!


हम सब अपने जीवन में कोई न कोई ‘धर्मयुद्ध’ लड़ रहे हैं और यहां ‘धर्म’ का मतलब महज़ मज़हब नहीं बल्कि अपनी मानसिक या आत्मिक मान्यताओं से हैं जिसे कभी हम स्वतः ही स्वीकार करते तो कभी-कभी अपने आस-पास के माहौल या पारिवारिक वातावरण से आत्मसात करते ऐसा मुमकिन ही नहीं कि किसी भी व्यक्ति के पास उसका अपना निज कोई अनुभव या धारणा न हो क्योंकि मानव मस्तिष्क सहज ही अपने चारों तरफ से कुछ न कुछ ग्रहण करता रहता जिसमें किताबी ज्ञान भी शामिल रहता पर, वास्तविक व्यावहारिकताओं से दो-चार होकर हमें जो आंतरिक अनुभूति होती वही हमारा 'धर्म' बनता  जिसमें हमारे अपने निज उसूल, नियम, कायदे और संकल्प दर्ज होते जिसके अनुसार हमारी मंज़िल व जीवन यात्रा का निर्धारण होता पर, जरुरी नहीं कि जो भी हमने तय किया या सोचा हूबहू वही हमारे साथ हो तो ऐसी जटिल या बदली हुई परिस्थितियों का सामना हम किस प्रकार से करे जो नीति अनुसार ही हो जिससे हमारे द्वारा कोई अधर्म या गलत कार्य भूले से भी न होने पाये

ऐसी द्वंदात्मम अवस्थाओं से हर किसी का पाला पड़ता तब ऐसे तनावपूर्ण अवसरों में अपने आप व प्रतिकूलताओं से सामंजस्य किस प्रकार बिठाया जाये और सही निर्णय लिया जाये इन सबका एक ही जवाब हैं 'श्रीमद्भगवदगीता' यह एक ऐसा विरला अनुपम ग्रंथ जिसे किसी धर्म विशेष से न जोड़कर केवल मानवीय मन की जटिलाओं के समाधान और अपने सभी प्रश्नों के उत्तर पाने का एकमात्र विकल्प समझे तो किसी को इसके इस पक्ष से इंकार नहीं होगा शायद, यही वजह कि कानूनी कार्यवाही या अदालतों में इसकी सौगंध दिलाई जाती कि यह मानव मन मे समस्त संशयों का निराकरण कर उसे अपनी सभी मुश्किलों से निपटने का ऐसा उजला समाधान देता जिसके तेजोमय विराट स्वरूप में पहाड़ जैसी परेशानी भी तुच्छ दिखाई देती । ‘भगवान श्रीकृष्ण’ को यदि ईश्वर या अवतार न मानकर यदि केवल एक आत्म रूप में और कुरुक्षेत्र में हथियार उठाकर भी युद्ध लड़ने की बजाय त्रैलोक्य का राज्य व सारी सुख-सुविधाओं को त्याग पलायन को खड़े ‘अर्जुन’ को यदि मानव मन के प्रतीक रूप में देखे तो सब कुछ साफ हो जाता और हम ये जान पाते कि ये तो हमारी सभी कठिनाइयों को मिटाने वाला एक अचूक औषध हैं ।

इसके प्रत्येक श्लोक में ऐसे गहन-गुढ़ शब्दार्थ छिपे हुए जिनकी व्याख्या करना या जिनको समझ पाना किसी एक के वश की बात नहीं कि हर किसी को अपने भीतर उलझनों भरी भूलभुलैया से उपजी परिस्थितियों की तरह ही उसकी पंक्तियों में सिर्फ वही नजर आता जो वो देखना या ढूंढना चाहता तो उसके आगे उसे फिर कुछ और न नजर आता तभी तो हर किसी की टीका-टिप्पणी भी एक-दूसरे से एकदम अलग दिखाई देती कि हर व्यक्ति की सोच, उसका नजरिया भिन्न होता ऐसे में जितना इसका चिंतन-मनन और मंथन किया जाता इतने इसके भिन्न-भिन्न अर्थ निकलते रहते और यदि हम अन्य दूसरी किताबों की जगह सिर्फ इसे ही अपने जीवन मे मुख्य स्थान दे तो कोई संदेह नहीं कि संदेहरहित जीवन व्यतीत करें । मार्गशीर्ष महीने की ‘मोक्षदा एकादशी’ को ‘गीता जयंती’ मनाई जाती जो ये संदेश देती कि महीनों में जिसे ‘कृष्ण’ ने अपना ही मासिक स्वरूप घोषित किया उसी के शुक्ल पक्ष में उन्होंने अर्जुन की प्रश्नावली का शमन कर उसे मोक्ष दिया और हम सब भी ऐसा कर सकते जरूरत केवल अपने संशय रूपी अर्जुन को गीता रूपी जवाबों का पान करना हैं । इसी के साथ सभी को गीता जयंती की शुभकामनाएं...  :) :) :)  !!!

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© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)

३० नवंबर २०१७

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