मंगलवार, 14 नवंबर 2017

सुर-२०१७-३१५ : ‘बाल-दिवस’ आ गया... ‘बचपन’ मगर, खो गया...!!!



८ सितंबर २०१७, को गुरुग्राम स्थित ‘रेयान इंटरनेशनल स्कूल’ में कक्षा दूसरी के मासूम छात्र ‘प्रद्युम्न’ की बुरी तरह से गला रेत निर्मम तरीके से हत्या को अंजाम दिया गया जिसके पीछे उसी स्कूल के कक्षा ११वीं में पढ़ने वाले एक अन्य नाबालिग छात्र का हाथ हैं और उसके पीछे की वजह स्कूल में होने वाली परीक्षायें व शिक्षक-अभिभावक बैठक को टालना था इस एक जघन्य हत्याकांड के आरोपी के तौर पर किशोर बालक का नाम आने से पुनः ये प्रश्न उठ खड़ा हुआ कि ये हम किस तरह की पीढ़ी का निर्माण कर रहे या हम किस तरह के समाज का गठन कर रहे हैं जहाँ अब बचपन पहले-सा नादान-भोलाभाला या मासूम नहीं रहा बल्कि इतना ज्यादा जागरूक हो चुका कि बलात्कार, हत्या, अपहरण जैसे अपराधों को बेहद शातिर तरीके से अंजाम दे रहा देश की राजधानी दिल्ली में हुये ‘निर्भया रेप कांड’ को कोई भूला नहीं होगा जिसमें सर्वाधिक पाशविकता करने वाले एक नाबालिग ही था और एक स्कूल में कुछ छात्रों द्वारा अपने शिक्षक को चाकू गोदकर मारने वाली शर्मनाक घटना भी यहीं घटित हुई थी इन सबने ये सोचे पर मजबूर कर दिया कि तकनीकी दृष्टिकोण से कहीं न कहीं हम जितने आधुनिक या विकसित हो रहे वहीँ उसने हमारे नौनिहालों से उसकी निर्दोष, निश्छल मुस्कान ही नहीं उसकी अल्हड़ शैतानियाँ भी छीन ली जिसका एकमात्र कारण ये ‘टेक्नोलॉजी’ ही हैं जिसने हमें मोबाइल, कंप्यूटर, इंटरनेट और बहुत सारे ‘गेजेट्स’ देकर हमारे जीवन को सुविधाजनक तो बना दिया लेकिन हमारी भावी पीढ़ी को एक तरह से गर्त में ढकेल दिया कि ‘स्मार्ट’ फोन पाकर वो अब ‘ओवर स्मार्ट’ बन चुका हैं । अब वो केवल उन बातों या जानकारियों से ही अवगत नहीं होता जो उसके लिये आवश्यक बल्कि अब तो उसे वो सब कुछ भी पता जिसके लिये उसका बाल मस्तिष्क परिपक्व नहीं हुआ उसी का ये दुष्परिणाम कि वो अनजाने में ही अपराधिक प्रवृति का शिकार होकर इस तरह की अमानवीय हरकतों में शामिल हो जाता हैं ।

यूँ तो हम आम भाषा में ‘किशोर’ या ‘नाबालिग’ शब्दों का का प्रयोग विकल्प के तौर पर करते हैं लेकिन, कानूनी भाषा में इन्हें विभिन्न संदर्भों में प्रयोग किया जाता हैं जहाँ ‘किशोर’ शब्द आपराधिक अपराधी के लिये प्रयोग किया जाता है वहीँ ‘नाबालिग’ शब्द कानूनी क्षमता या व्यक्ति की वयस्कता से संबंधित होता है । अपने देश में अभी तक सामान्य रुप में छोटे-मोटे अपराध जैसे चोरी, सेंधमारी, झटके से पर्स या चैन छीनने जैसे अपराध जिनकी प्रकृति बहुत गंभीर नहीं थी बच्चों द्वारा किये जा रहे थे । लेकिन, अब डकैती, लूटमार, हत्या और दुष्कर्म आदि जैसे गंभीर व जघन्य प्रकृति वाले अपराधों में भी कोई न कोई किशोर शामिल होता ही हैं क्योंकि उसे कानून से छूट हासिल होती जिसका दुरुपयोग वो इस तरह से कर रहा हैं । यदि हम राष्ट्रीय अपराध रिपार्ट ब्यूरो के आंकड़े देखें तो 2013 में भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) के तहत नाबालिगों के खिलाफ 43,506 और विशेष स्थानीय कानून के तहत किशोरो द्वारा जिनकी आयु 16 से 18 वर्ष के बीच है के खिलाफ 28,830 अपराधिक मामले दर्ज हैं ये आंकड़े दिखाते हैं कि 2013 में, 2012 की तुलना में, किशोर मामलो में आई.पी.सी. और एस.एल.एल. में क्रमशः 13.6% और 2.5% की वृद्धि हुई है। बाल अपराधियों के इस लगातार बढ़ते हुये ग्राफ ने इस चिंतन को जन्म दिया कि आखिर इनके पीछे की वजह क्या हैं ? क्यों अचानक से किशोर या नाबालिग इस तरह का व्यवहार करने लगे? उनके पालन-पोषण में क्या कमी रह गयी ? क्योंकि ये तो केवल वो चंद प्रकरण हैं जो रिकॉर्ड में दर्ज हैं लेकिन, कई मामले ऐसे हैं जिनके बारे में हमें खबर तक नहीं । ऐसे में इसके पीछे के कारणों की पड़ताल जरूरी जिसमें प्रथम स्थान ‘इंटरनेट’ को ही जाता हैं उसके बाद संगति या परिवारिक माहौल आता हैं । जब अपराध भाव से ग्रस्त इन बच्चों की काउंसिलिंग की जाती है तो कई ऐसे महत्वपूर्ण पहलू निकलकर सामने आते हैं जिनमें अधिकतर मामलों में बच्चे घरेलू तनाव के कारण अपराध कर देते हैं।

ऐसे में ‘बाल दिवस’ या ‘चिल्ड्रन डे’ का मनाया जाना इसके इस पहलू को सामने लाता कि जब ‘बचपन’ ये ‘बच्चे’ बचे ही नहीं तो फिर इसका औचित्य क्या हैं ? पर, ऐसा नहीं हैं यदि हम इसे न मनाये तो ये गलत होगा हमें बच्चों की उस पवित्रता को बचाना हैं उनके दिलों-दिमाग से गंदगी को निकालना हैं और उनको वापस उस सच्चाई भरी निष्कलंक दुनिया में लाना हैं जहाँ उन्मुक्त खिलखिलाहट, ईमानदार स्वीकारोक्ति, निष्पक्ष प्रतिस्पर्धा, समानता की भावना और खेल-खिलौने, परियों, प्रकृति, मैदान, तितली के पीछे दौड़ते बच्चे हो न कि मोबाइल में सर झुका आँखें गड़ाकर ‘पोर्न’ देखते या ‘ब्लू व्हेल’ खेलते अवयस्क हो जो जरा-जरा-सी बात पर चिडचिडा या गुस्सा हो जाते हो झगड़ते या उलझते हो जिनके शब्दकोश में ‘सब्र’ / ‘संयम’ या ‘धैर्य’ जैसे शब्द ही न हो तभी हम सही मायनों में इस दिवस को उसकी गरिमा के साथ मना पायेंगे अन्यथा ये महज़ औपचारिकता बनकर रह जायेगा तो इसी उम्मीद के साथ सभी बच्चों को जिनके भीतर उनका बचपन आज भी सुरक्षित हैं ‘बाल दिवस’ की अनंत शुभकामनायें... :) :) :) !!!    

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© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)

१४ नवंबर २०१७

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