बुधवार, 15 नवंबर 2017

सुर-२०१७-३२६ : और, जीवन बीत गया... ‘कुंवर नारायण’ का लिखा सच हुआ...!!!



व्यक्ति के जन्म नहीं उसकी मृत्यु से उसके अमरत्व का निर्धारण होता गोया कि मौत उसे अमरता प्रदान करती यदि उसने अपने जीवन में ऐसा कोई कर्म किया हो जिसे विस्मृत किया जाना संभव नहीं हो या जिसकी वजह से बहुत-सी जिंदगियां प्रभावित हुई हो तो इस प्रकार से देखने पर ‘हिंदी साहित्य’ के मूर्धन्य कवि ‘कुंवर नारायण’ का आंकलन करें तो पाते कि उन्होंने तो न केवल ऐसा काम किया बल्कि अपने लेखन से अनगिनत लेखकों को साहित्यिक जीवन पर असर भी डाला तो फिर भला आज उनका बिछड़ जाना किस तरह से हमें पता नहीं चलता जैसे ही आज उन्होंने अंतिम सांस ली तो उनकी ये कविता जो मेरी प्रिय भी हैं अनायास ही जेहन में तैर गयी...

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इतना कुछ था दुनिया में
लड़ने झगड़ने को
पर ऐसा मन मिला
कि ज़रा-से प्यार में डूबा रहा
और जीवन बीत गया...
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वाकई प्रेमिल मन प्रेम में ही निमग्न रहता उसे अहसास ही नहीं होता कि कब ये क्षणभंगुर जीवन समाप्त हो जाता कुछ ऐसे ही थे ‘कविवर’ जिन्होंने हर तरह के विवादों से दूर रहकर सदैव अपने आपको काव्य प्रेम में डुबाया रखा और प्रकृति के सानिध्य में रहकर नित नूतन सृजन किया तो कभी जीवन के छोटे-छोटे पलों से कुछ ऐसा चुरा लिया जिसे कविता में ढालकर अविस्मरणीय बना दिया जिसका रसास्वादन कर हमें उन शब्दों में छिपे गूढ़ार्थ को ग्रहण करने का प्रयास किया कि वे इसके माध्यम से हमसे क्या कहना चाहता और जब उसको समझा तो अपने आप सर श्रद्धा सेनत हो गया कुछ ऐसा ही लगता जब उनकी लिखी इन पंक्तियों को पढ़ते... 

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पार्क में बैठा रहा कुछ देर तक
अच्छा लगा,
पेड़ की छाया का सुख
अच्छा लगा,
डाल से पत्ता गिरा- पत्ते का मन,
''अब चलूँ'' सोचा,
तो यह अच्छा लगा...
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कुछ ऐसे ही कविता गढ़ लेते थे वो और इस तरह अपनी कविताओं से एक ऐसा कल्पनालोक खड़ा किया जिसमें अद्भुत उपमाओं से भांति-भांति की कविताओं की रचना कर ‘हिंदी साहित्य’ को समृद्ध किया कि १९ सितंबर १०२७ को जन्मे इस कवि हृदय ने ९० बरस का एक लम्बा जीवन ही नहीं बल्कि देश में हुये बदलावों के साथ एक कालखंड को भी जिया जिसके उतार-चढ़ाव को हम उनकी कविताओं में भी महसूस कर सकते हैं कि उन्होंने अपने परिवेश को अपने शब्दों में उतार सदा-सदा के लिये जीवंत कर दिया जिससे कि वो गुजरकर भी उनमें आज भी उसी तरह कायम हैं यह कारनामा केवल एक सृजनकर्ता ही कर सकता और कवि तो साक्षात् जनक का दर्जा रखता वो समय और युग को भी अपने लेखन में सुरक्षित कर देता जिसकी बानगी इस रचना में दिखाई देती हैं...

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जिस समय में
सब कुछ
इतनी तेजी से बदल रहा है
वही समय
मेरी प्रतीक्षा में
न जाने कब से
ठहरा हुआ है
उसकी इस विनम्रता से
काल के प्रति मेरा सम्मान-भाव
कुछ अधिक
गहरा हुआ है...
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वाकई, समय व्यतीत होता लेकिन उस समय में खुद पर व्यतीत होने वाला भाव हमेशा ज्यों का त्यों रहता और जब एक कलमकार उसे शब्दों की लड़ियों में पिरो देता तो फिर वो उसी तरह शाश्वत रहता

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बहुत कुछ दे सकती है कविता
क्यों कि बहुत कुछ हो सकती है कविता
ज़िन्दगी में
अगर हम जगह दें उसे
जैसे फलों को जगह देते हैं पेड़
जैसे तारों को जगह देती है रात
हम बचाये रख सकते हैं उसके लिए
अपने अन्दर कहीं
ऐसा एक कोना
जहाँ ज़मीन और आसमान
जहाँ आदमी और भगवान के बीच दूरी
कम से कम हो
वैसे कोई चाहे तो जी सकता है
एक नितान्त कवितारहित ज़िन्दगी
कर सकता है
कवितारहित प्रेम
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कविता को ऐसा प्रेम करने वाला प्रेमी कवि आज चला गया लेकिन उसका ये काव्य उसे हिंदी साहित्य जगत में हमेशा जीवित रखेगा... :) :) :) !!!

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© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)

१५ नवंबर २०१७

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