सोमवार, 20 नवंबर 2017

सुर-२०१७-३३१ : जुदा अंदाज़, मिज़ाज शायराना जिसका... ‘फैज़ अहमद फैज़’ था नाम उसका...!!!


हो सकता किसी ने ‘फैज़ अहमद फैज़’ का नाम न सुना हो लेकिन शायद, ही कोई इससे इंकार करेगा कि उसने कभी ये नहीं सुना...

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बोल कि लब आज़ाद हैं तेरे
बोल ज़बाँ अब तक तेरी है
बोल ये थोड़ा वक़्त बहोत है
जिस्म-ओ-ज़बाँ की मौत से पहले
बोल कि सच ज़िंदा है अब तक
बोल जो कुछ कहने है कह ले
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उस वक़्त ही नहीं जब इसे लिखा गया तह बल्कि आज के दौर में भी और आगे भी ये उतना ही प्रासंगिक रहेगा कि सच बोलने को जुबान का आज़ाद रहना जरूरी हैं अन्यथा जीने का कोई अर्थ नहीं रह जाता जब जुल्मों-सितम के खिलाफ़ इंसान आवाज़ नहीं उठाता और ऐसे में उसके लबों पर यही आता ‘बोल कि लब आज़ाद हैं तेरे’... और बार जब ‘इश्क़’ की हो तब भी उनके ही लिखे ये अल्फाज़ लब बुदबुदा उठते...

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वो लोग बहुत ख़ुशक़िस्मत थे
जो इश्क़ को काम समझते थे
या काम से आशिक़ी करते थे
हम जीते जी मसरूफ़ रहे
कुछ इश्क़ किया कुछ काम किया
.....
काम इश्क़ के आड़े आता रहा
और इश्क़ से काम उलझता रहा
फिर आख़िर तंग आकर हम ने
दोनों को अधूरा छोड़ दिया
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जीवन को यूँ तो समझना नामुमकिन लेकिन कुछ हालात और अनुभव ऐसे होते जो सबके साँझा होते तो ऐसे में जब कोई इस फलसफे को अपने शब्दों में व्यक्त करता और दूसरे को उसमें अपने मन का अक्स दिखाई देता तो बेसाख्ता उसके मुंह से ‘वाह्ह्ह’ निकल जाती कुछ ऐसा ही होता जब कोई इनकी लिखी इन पंक्तियों को पढ़ता...

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जिस्म पर क़ैद है जज़्बात पे ज़ंजीरे है
फ़िक्र महबूस है गुफ़्तार पे ताज़ीरें हैं
और अपनी हिम्मत है कि हम फिर भी जिये जाते हैं
ज़िन्दगी क्या किसी मुफ़्लिस की क़बा है
जिस में हर घड़ी दर्द के पैबंद लगे जाते हैं
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जीवन तो हर हाल में जीना है फिर चाहे कितना भी कठिन हो या कितनी भी मुश्किलें राह में आ जाए साहसी लोग रास्ता नहीं बदलते बल्कि दूसरों का अपने प्रति नजरिया या फिर अपनी सोच बदलकर उसे नूतन दिशा देते कि आरजू कायम रहे तो निराशा कभी भी हमें अपनी गिरफ़्त में नहीं ले पाती तो ऐसे में ये शेर उसके हौंसलों को कायम रखने में बड़ी मदद करता हैं...

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नहीं निगाह में मंज़िल तो जुस्तजू ही सही
नहीं विसाल मयस्सर तो आरज़ू ही सही
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प्तन्हाई और याद का बड़ा गहरा नाता हैं और कोई ऐसा नहीं जिसके जीवन में किसी याद का साया न हो और कुछ तो ऐसे कि इन यादों के सहारे ही जीवन गुजारते और कुछ तो यादों के जख्मों को कभी सूखने ही नहीं देते उन लोगों के लिये ही शायद, उन्होंने ये लिखा...

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तुम्हारी याद के जब ज़ख़्म भरने लगते हैं
किसी बहाने तुम्हें याद करने लगते हैं
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ऐसे दिलनशीन शायर को आज उनकी पुण्यतिथि पर उनके ही शब्दों में यही श्रद्धांजलि...

गुलों में रंग भरे, बाद-ए-नौबहार चले
चले भी आओ कि गुलशन का करोबार चले

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© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)

२० नवंबर २०१७

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