चैन
लेते न कहीं
एक
पल एक घड़ी
फिरते
दर बदर
बंजारों
की तरह
मैं
और मेरी आवारगी...
न
पता न खबर
जाना
हमें हैं किधर
भटकते
रात ओ दिन
लापता
की तरह
मैं
और मेरी आवारगी...
कोई
सदा पुकारे
समझ
न पाऊँ
अंदर
या बाहर
ढूंढे
उसे इधर-उधर
कस्तूरी
मृग की तरह
मैं
और मेरी आवारगी...
न
ही महफ़िल
न
ही तन्हाई में
मिलता
सुकून हैं
करें
मुक्ति का इंतज़ार
किसी
शापित की तरह
मैं
और मेरी आवारगी...
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© ® सुश्री
इंदु सिंह “इन्दुश्री’
नरसिंहपुर (म.प्र.)
०७ नवंबर २०१७
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