रविवार, 12 नवंबर 2017

सुर-२०१७-३१३ : ‘बाल-दिवस’ आ रहा... बचपन याद दिला रहा... : ०२ !!!



‘पालना’ और ‘पलना’ इन दोनों शब्दों के लिखने ही नहीं बल्कि इनके अर्थ में बेहद भिन्नता हैं क्योंकि ‘पालना’ एक ज़िम्मेदारी से भरा हुआ दायित्व हैं जिसमें जरा-भी लापरवाही घातक सिद्ध हो सकती हैं लेकिन, ‘पलना’ सिर्फ एक क्रिया जिसके लिये प्रयास न किये जाने पर भी वो घटित हो सकती हैं याने कि एक शिशु के जन्म के बाद से ही उसके लालन-पालन हेतु पालकों द्वारा विशेष योजनाबद्ध तरीके से हर कदम उठाना उसकी हर एक गतिविधि पर नजर रखना उसे संस्कार व तहजीब सिखाना ‘पालना’ कहलाता जिसकी शुरुआत उसके गर्भ में आते ही आरंभ हो जाती परंतु, ‘पलना’ तो अपने-आप ही होता जहाँ परिस्थितियों पर ही सब कुछ छोड़ दिया जाता और किसी भी तरह का कोई प्रयत्न नहीं किया जाता तो ऐसे में अपेक्षायें रखना औचित्यहीन होता तथा ऐसे बच्चे ही होते जो गलत राह में चले जाते कि उनको किसी तरह का मार्गदर्शन या दिश-निर्देश प्राप्त नहीं होता पर, जिस घर-परिवार में उनके बाल्यकाल से ही ऐसा माहौल दिया जाता कि उन्हें सही-गलत, अच्छे-बुरे के साथ-साथ उनके भावी जीवन के लिये भी संकल्पवान बनाया जाता वे बालक-बालिकायें बड़े होकर न केवल उच्च चरित्र वाले आदर्श व्यक्ति बनते बल्कि उनसे दूसरे भी प्रेरणा लेते

इसके लिये कोई कठिन पथ नहीं चुनना केवल छोटी-छोटी बातों का ध्यान रखना होता हैं जैसे एक-एक ईट रखकर इमारत बनाई जाती उसी तरह से उसके भीतर एक-एक अच्छी आदत, चुन-चुनकर बेहतरीन गुणों का समावेश किया जाता जो उसके सुदृढ़ व्यक्तित्व का निर्माण करते उसके भविष्य को आकार देते फिर जिसे किसी भी तरह के हालातों या किसी भी तरह की कठिन से कठिन परीक्षा से भी तोड़ा नहीं जा सकता परंतु आजकल ये सब बातें प्राचीनकालीन साबित की जा रही और नई तकनीकों के साथ बच्चों को पालने-पोसने के लिये भी नये शॉर्टकट तरीके इज़ाद किये जा रहे जिसमें ‘पहला’ तो यही कि अब घरों में बुजुर्गों की जगह ही नहीं जो बच्चों को नैतिक शिक्षा व प्रेरक कहानियों के माध्यम से उसके कोमल मस्तिष्क में ऐसे विचार रोपते जो पल्लवित होकर उसके चरित्र को मजबूत बनाते ‘दूसरा’ अब माता-पिता दोनों ही कमाने के चक्कर में बाहर रहते तो उसके मासूम बचपन का सबसे महत्वपूर्ण व सुनहरा काल किराये की ‘आया’ के हाथों में गुजरता जिसके आये दिन किस्से हम सुनते ही रहते ‘तीसरा’ ‘गेजेट्स’ / ‘इंटरनेट’ बच्चों के नन्हे हाथों व अपरिपक्व दिमाग में दे दिया जाते जो उसकी मासूमियत को निगलकर उसकी पवित्र मानसिकता को कलुषित करते और रही-सही कसर उसको मनमाना जेबखर्च देना, उसकी संगत को न परखना, उस पर नजर न रखना, उसे क्लब / पार्टीज में जाने देना जैसी लापरवाहियों से पूरी हो जाती

बचपन को फिर एक बार उसकी वो निर्दोष मुस्कान, वो निश्छल हंसी, वो नटखट शैतानी, वो लुभावनी हरकतें, वो निष्पाप मासूमियत वापस दिलाने के लिये उसे इस मशीनी वातावरण से वापस उस आश्रम जैसे कुदरती परिवेश में ‘पंचतंत्र’ जैसी सहज-सरल कहानियों के मध्य ले जाना चाहिये जहाँ अवतारों के बाल-चरित्र, ज्ञानी, भक्त, वीर, ईमानदार, सत्यवादी, मेधावी, परोपकारी बालक-बालिकाओं की सच्ची कहानियों के माध्यम से उनके भीतर धैर्य, संयम, विवेक जैसे गुणों का विकास करना चाहिये जो एकदम नदारद हैं और जिनकी वजह से उनमें क्रोध, ईर्ष्या, अधीरता बढ़ रही हैं यदि ऐसा हुआ तब निश्चित ही हम बच्चों को बच्चों सम महसूस कर सकेंगे... :) :) :) !!!       
  
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© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)

१२ नवंबर २०१७

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