बुधवार, 22 नवंबर 2017

सुर-२०१७-३३३ : ‘डॉक्टर रखमा बाई राउत’ की याद आई... कानून में जो बदलाव लाई...!!!



हम स्वतंत्रता के महज़ ७० सालों बाद ही जिस तरह से उड़ रहे और ऊँची-ऊँची बातों में लगे पड़े तब ये कल्पना भी नहीं कर सकते कि किस तरह उस वक्त जबकि भारत गुलाम था और देश में अंग्रेजों का शासन था तो समाज व घर में पुरुषों का ऐसे में स्त्रियों की दशा और उनके अधिकारों के बारे सोचने की किसे फ़िक्र तब तो औरतों की अपनी जिंदगी न होती उसके सभी फ़ैसले वो नहीं बल्कि उसके जन्मदाता लेते थे उस पर उस काल में कुछ प्रथाएं और रिवाज़ ऐसे कि न चाहते हुये भी उनका पालन करना पड़ता था लेकिन चाहे कैसे भी हालात हो या कितना भी कठिन दौर कुछ लोग होते जो वक़्त के सांचे में नहीं ढलते बल्कि सांचों को तोड़कर अपना खुद का सांचा बनाते हैं कुछ ऐसा ही अद्भुत करिश्मा कर दिखाया ‘रखमा बाई राउत’ ने जिनकी शादी उनकी मर्जी के बिना ११ साल की नाज़ुक उम्र में १९ बरस के  'दादाजी भिकाजी' से कर दी गयी क्योंकि उस वक्त यही परम्परा थी और उसकी माँ का विवाह भी इसी तरह हुआ था तथा आस-पास रहने वाली बाकी स्त्रियों का भी तो कुछ नया या अलग न था परंतु उन्होंने इस ब्याह को स्वीकार नहीं किया और अपने दादाजी व परिवार वालों के कहने पर अपने पति के घर नहीं गयी बल्कि अपने ही घर पर रहकर अपनी शिक्षा में लगी रही जो उस युग में बेहद आश्चर्यजनक था

उकसे पति को उसका ये फैसला पसंद नहीं आया और उन्होंने १८८५ में अपनी पत्नी पर पति के वैवाहिक अधिकारों को पुनर्स्थापित करने के लिए बॉम्बे हाईकोर्ट में याचिका दायर करते हुये कहा कि, ‘रख्‍माबाई’ आकर उनके साथ रहें तब अदालत ने ‘रख्‍माबाई’ को अपने पत्नी धर्म का पालन करने या फिर जेल जाने के लिए कहा तब ‘रख्‍माबाई’ ने जेल जाना स्वीकार किया लेकिन पति के पास नहीं और उन्‍होंने तर्क दिया कि वह यह शादी नहीं मानती, क्योकि जब वो शादी हुई तो वह उस उम्र में अपनी सहमति नहीं दे पाईं थीं इस तरह के तर्क को वो भी किसी महिला के मुंह से किसी भी अदालत में इससे पहले कभी नहीं सुना था तो इस तरह ‘रख्‍माबाई’ ने अपने तर्कों से सबका ध्यान अपनी तरफ खिंचा यहीं नहीं 1880 के उस दशक में प्रेस के माध्यम से लोगों को भी इस पर ध्यान देने पर विवश कर दिया गया तथा कई समाज सुधारकों की जानकारी में यह मामला आया तो उन्होंने उसकी मदद की जिसकी वजह से आखिरकार, उसके दादाजी ने शादी को भंग करने के लिए एक मुद्रा के रूप में मौद्रिक मुआवजा स्वीकार किया इस समझौते के कारण ‘रख्‍माबाई’ को जेल जाने से बचा लिया गया इस मामले के प्रचार ने ‘आयु सहमति अधिनियम, 1891’ के पारित होने में मदद की, जिसने ब्रिटिश साम्राज्य में बाल विवाह को गैरक़ानूनी किया

इसके बाद शुरू हुई दूसरी लड़ाई अपनी पहचान, अपने अस्तित्व को कायम रखने की  जिसके तहत 1889 में वे इंग्लैंड गई ताकि वे लंदन स्कूल ऑफ़ मेडिसिन फॉर विमेन में अध्ययन कर सकें और वहां से अपनी शिक्षा पूरी कर और 1894 में भारत लौट आई इसके बाद उन्होंने महिला चिकित्सा सेवा में शामिल होने के प्रस्ताव को खारिज कर उसकी जगह राजकोट में महिलाओं के लिए एक राज्य अस्पताल में शामिल होने का निर्णय लिया और 1929 या 1930 में बॉम्बे में सेवानिवृत्त होने के पश्चात पैंतीस साल के लिए मुख्य चिकित्सा अधिकारी के रूप में कार्य किया इसके अतिरिक्त वे समाज सेवा के कामों में भी अनवरत जुटी रही तथा महिला सशक्तिकरण की मशाल जलाई और बाल-विवाह, पर्दा प्रथा जैसी कई कु-प्रथाओं के विरुद्ध काम करती रही यहाँ उनकी अद्भुत लगन व सतत कार्यों का ही परिणाम हैं कि आज 22 नवंबर, 2017 को, गूगल ने भी ‘रूखमाबाई’ को उनके 153 वें जन्मदिन पर अपने भारतीय फ्रंट पेज पर गूगल डूडल के साथ सम्मानित किया जो एक बहुत बड़ी उपलब्धि हैं

‘फेक फेमिनिज्म’ की आड़ में अपनी मनमानी के लिये लड़ने वाली औरतों को इनसे सीख लेनी चाहिये कि ‘रियल फेमिनिज्म’ क्या होता हैं और किस तरह अपने निर्णायक फैसलों से अपने साथ-साथ अपने जैसी अन्य दुखी महिलाओं के जीवन में भी बदलाव लाया जाता हैं न कि केवल स्वछंद जीने की ही पैरवी की जाती ताकि बेरोकटोक जो चाहे कर सके जबकि उन्होंने सभी काम जमीनी स्तर पर किये और सभी महिलाओं के लिये सोचा जिसका नतीजा कि ब्रिटिश शासन को भी कानून में परिवर्तन करना पड़ा ऐसी दिलेर, साहसी, विदुषी नारी और समाज सुधारक व चिकित्सक को मन से नमन... :) :) :) !!!

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© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)

२२ नवंबर २०१७

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