बुधवार, 29 नवंबर 2017

सुर-२०१७-३४० : घर-घर आया भूरा कुम्हड़ा... बनने लगे बड़ी और बिजौड़ा...!!!


'भूरा' या 'सफेद कद्दू' या 'पेठा' या 'कुष्मांड' चाहे जिस नाम से इसे पुकारो लेकिन, हर जगह पाया जाता पर, आता केवल सर्दियों के मौसम में जबकि इसे बारिश में बोया जाता हैं । आजकल हमारे यहां चारों तरफ हाट में यही दिखाई दे रहा क्योंकि शिशिर का ये मौसम भले ही इसमें दिन छोटे होते लेकिन इतने अधिक ऊर्जावान कि बहुत-से वार्षिक कामों को ठिठुरने के बावजूद भी इन दिनों अंजाम दिया जाता हैं । इसमें सबसे पहले नंबर पर आता हैं 'बुनाई' और जब ऊन के गोलों को हाथ में लेकर पतली-पतली उंगलियां तेजी से सलाइयों पर चलती तो पता न चलता कब कितनी नई-नई स्वेटर बुन जाती लेकिन, मशीनों व तकनीक की वजह अब ये कला लुप्तप्राय और न के बराबर ही देखने में आती कि अब तो लोगों को कम दाम में बढ़िया से बढ़िया डिज़ाइन के गर्म कपड़े बड़ी आसानी से मार्किट में मिल जाते तो फिर कोई इतना वक़्त क्यों बर्बाद करे आखिर इस खाली समय में मोबाइल जो चलाना हैं । इस कम्बख्त मोबाइल ने स्त्रियों को भी इस तरह के कामों से छुट्टी पाने का मौका ही नहीं वजह भी मुहैया करा दिया कि जिन कामों में मेहनत व समय लगता उनके सस्ते विकल्प बाजार में मौजूद तो ऐसे में कौन इसमें खपना चाहेगा अन्यथा पहले तो सर्दियों की आमद होने से पूर्व ही महिलाएं स्वेटर की नई डिज़ाइन और ऊन तय कर तैयार रहती उसे बनाने के लिए पर, अब तो ढूंढे से ही किसी घर में ऊन या सलाई मिले ।

इन्हीं दिनों 'बुनाई' के बाद नंबर आता सलाना खाद्य सामग्री 'बनाई' का जिसमें बड़ी, पापड़, अचार, मुरब्बे, चटनी, बिजोडें आदि बनाने में सब जुट जाते कि ऐसा मौसम कोई दूसरा नहीं जब ये कठिन लगने वाले काम इतनी आसानी से सम्पन्न हो सके जैसे ही मार्किट में 'भूरा कुम्हड़ा' आता सबको ये लगता कि 'पूस' का महीना लगने और बदली होने से पहले ही वो बड़ी-बिजौडे बना ले नहीं तो फिर अगले बरस तक इंतजार करना पड़ेगा तो बस, खरीद लाते एक बड़ा सा भूरा और शुरू होती कवायद उससे बड़ा, बड़ी, बिजौडे बनाने की गांव में ये काफी रोचक होती कि कभी-भी या किसी भी तरह से इसे बनाना संभव नहीं होता बकायदा मुहूर्त निकालकर शादी-ब्याह की तरह ही इसका विधिवत पूजन कर शुभारंभ किया जाता ताकि इनको किसी की नजर न लगे, ये बदली से बचे रहे और एकदम सही तरह से बन जाये तो बड़ी ताम-झाम के साथ इसका बीड़ा उठाया जाता । पहले कुम्हड़े को किसा जाता पर, साथ में हिदायत कि उसका रस या पानी सर में न लग जाये नहीं तो बाल सफेद हो जाएंगे और स्वच्छता का भी ध्यान रहे नहीं तो बड़ी खराब हो जायेगी ऐसी कई सावधानियों से गुज़रकर पहला पड़ाव पार होता जब कद्दू पूरा किस जाता ।

इसमें ये भी ध्यान रखना पड़ता कि उसका पानी व बीजे बचाकर रख लिए जाए कि उनकी ‘बिजौडों’ में जरूरत पड़ती तो इतना कर रात से भींगी उड़द की दाल को पीसकर एक टोटके के तौर पर, पहले उसके बड़े तले जाते जो बादलों को आने से रोकते ऐसी मान्यता हैं । अब कद्दू, मसाले, दाल मिलकर बड़ी बनाई जाती फिर थोड़ा-सा मिश्रण बचाकर उसमें तिल व बीज मिलाकर चूड़ी से गोल-गोल बिजौडे डाले जाते तो इस तरह एक साथ बड़ी-बिजौडे बन जाते जिन्हें दो-तीन दिन अच्छी तरह कड़ी धूप में सुखाकर साल भर के लिए रख लिया जाता । फिर जब मर्जी हो बिजौडों को तलकर तो बड़ी को सब्जी बनाकर खाया जाता जो फिलहाल सभी जगह बदस्तूर जारी पता नहीं शहरों में ये दूसरी जगह में ये किया जाता या नहीं लेकिन, हमारे इधर तो अभी सभी महिलाएं बड़ी तेजी से इसी काम में लगी हुई हैं ताकि पूस आने से पहले वो इससे निपट जाये हालांकि इसका भी एक तोड़ खोज लिया गया कि यदि किसी के यहां ‘बड़ी’ बन रही हो और उसे छू दिया जाए तो फिर वो ‘पूस’ में भी अपने यहां इसे बना सकता हैं भले वैज्ञानिक दृष्टिकोण से इन बातों के कोई मायने न निकले लेकिन, भूरे कुम्हड़े के साथ यहां इस तरफ की लोक मान्यताएं प्रचलित तो सभी इस आचार सहिंता का पालन करते हुए ही बड़ी-बिजौडे बनाते हैं यदि कोई इनका उल्लंघन करता तो बदले मौसम या उसकी बड़ी खराब होने के रूप में उसे इसका परिणाम भी भुगतना पड़ता हैं ।

भारत देश की यही विविधताएं उसे रोचक व आकर्षण का केंद्र बनाती हैं । जितने लोग, जितने प्रान्त उतने ही मत-मतान्तर फिर भी सबमें एका और आपस में स्नेह ही उन्हें जोड़े रखता फिर चाहे वो सबके अपने-अपने तीज-त्यौहार हो या अपनी-अपनी परंपराएं सब मिलकर उन्हें मनाते जो विश्व पटल पर भारत को अनेकता में एकता का प्रतिरूप दर्शाती हैं ।

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© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)

२९ नवंबर २०१७

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