गुरुवार, 11 जनवरी 2018

सुर-२०१८-११ : #स्वामी_विवेकानंद_ज्ञान_मोती_०४


देश की स्त्रियां विद्या, बुद्धि अर्जित करे, यह मै ह्रदय से चाहता हूँ, लेकिन पवित्रता की बलि देकर यदि यह करना पड़े तो कदापि नहीं
---स्वामी विवेकानंद

अपने अमरीका प्रवास में स्वामी जी का अनेकों स्त्रियों से परिचय हुआ और उन्हें अपने भारतीय परिवेश की तुलना में ये देख आश्चर्य हुआ कि कि वे सब वे स्वाधीन थीं और अपना जीवन अपनी इच्छानुसार जीती थी । यहाँ तक कि अपने जीवन के सभी निर्णय वे स्वयं ही लेती थी याने कि भारतीय महिलाओं की तरह केवल घर की चारदीवारी में ही सीमित नहीं रहती अपने जीवन की बागडोर भी अपने ही हाथो में रखती थी । इन महिलाओं ने ही उनके आगमन पर वहां पर उनका स्वागत-सत्कार किया साथ-साथ उनके रुकने व भोजन आदि के साथ उनके व्याख्यानों के लिये सभी समुचित व आवश्यक  प्रबंध भी खुद ही किया । ये सब उनके लिये एकदम नया अनुभव था क्योंकि, जिस देश से वे आये थे वहां उन्होंने स्त्रियों को देवी-तुल्य मान उनकी पूजा की बात तो अवश्य सुनी-देखी थी और उन्हें घर के काम-काज भी करते देखा था । यहाँ तक कि कुछ विदुषी स्त्रियों को भी उन्होंने उस दौर में देखा लेकिन, जिस तरह की आत्मविश्वास से भरी आधुनिक छवि उन्हें यहाँ देखने को मिली वो पूर्व में केवल सुनी थी । इसलिये न्यूयार्क में एक बार भाषण देते हुए स्वामी जी ने कहा, “मुझे बड़ी प्रसन्नता होगी यदि भारत की स्त्रियों की ऐसी ही बौद्धिक प्रगति हो जैसी कि इस देश में हुई है परंतु, वह उन्नति तभी अभीष्ट है, जब वह उनके पवित्र जीवन और सतीत्व को अक्षुण्ण बनाए रखते हुए हो । मैं अमरीका की स्त्रियों के ज्ञान और विद्वता की बड़ी प्रशंसा करता हूं, परंतु मुझे अनुचित दिखता है कि आप बुराइयों को भलाइयों का रंग देकर छिपाने का प्रयत्न करें यद्यपि भारतीय स्त्रियां उतनी शिक्षित नहीं हैं फिर भी उनका आचार-विचार अधिक पवित्र होता है । यहाँ के पुरुष स्त्रियों के सम्मुख झुकते हैं उन्हें आसन प्रदान करते हैं परन्तु, एक क्षण के उपरांत वे उनकी चापलूसी करने लगते हैं वे उनके नख शिख क़ी प्रशंसा करना प्रारम्भ कर देते हैं ..आपको ऐसा करने का क्या अधिकार है? कोई पुरुष इतनी दूर जाने का साहस कैसे कर सकता है ?और यहाँ क़ी स्त्रियाँ उसको सहन भी कैसे कर लेती हैं ? इस प्रकार के भावों से तो मनुष्य में निम्नतर भावों का उद्रेक होता है उससे उच्च आदर्शों क़ी प्राप्ति सम्भव नहीं

हो सकता आज की फेमिना उनकी ये बात सुनकर उनका विरोध करें क्योंकि उनके लिये यौन शुचिता या पवित्रता के कोई मायने नहीं वे सिर्फ उसे ही नारी स्वंतंत्रता समझती जहाँ उन्हें अपनी देह को अपने हिसाब से इस्तेमाल करने की इजाजत हो । फिर चाहे ऐसा करने से मान-मर्यादा भंग हो या जिस सतीत्व की बात स्वामी जी ने कही वो अक्षुण्ण न रहे क्योंकि, वैसे भी ये सब उनके शब्दकोश के शब्द ही नहीं वे वही स्वच्छंदता चाहती जैसी विदेशी महिलाओं को प्राप्त हैं । जबकि स्वामी जी ने उसके साथ ही ये भी कहा कि, “पाश्चात्य देशों का खुलापन, स्वतंत्रता, अनैतिक यौनाचार, विवाह विच्छेद आदि ऐसे अनेक पहलू हैं जो दोषपूर्ण हैं और ये समाज के ताने-बाने को कमजोर बनाने वाले हैं। व्यक्तिवादिता के कारण ही यहां गृह-कलह से दु:खी और सुख-शांति विहीन परिवारों की संख्या बहुत अधिक है। पश्चिमी देशों का व्यक्ति अपने ही लिए पैदा होता है और हिन्दू अपने समाज के लिए। इन मुट्ठी भर राष्ट्रों में से एक भी तो दो शताब्दियों तक जीवित नहीं रह सकता, किन्तु, हमारी प्रथाओं को देखो, किस तरह वे युगों के घात-प्रतिघात के बीच भी आज तक टिकी हुई हैं। आज केवल १५० साल बाद ही यदि वे देखे तो पायेंगे कि जिस भारत और उनकी जिस परम्पराओं पर उनको गर्व था वो अपने उसी गौरव को मिटाने में लगा हुआ हैं और उन्होंने स्त्रियों के जिन गुणों की प्रशंसा की थी आज की पढ़ी-लिखी स्त्रियाँ उसे ही अपने लिये शर्म की बात समझती हैं । उन्होंने पाश्चात्य देश के माहौल की जिन बुराइयों से बचने की सलाह दी थी आज उसी को हमारी नवजवान पीढ़ी न केवल आत्मसात कर रही बल्कि, पूरी तरह से उसका अनुशरण कर रही हैं इसलिये इस वजह से होने वाली जिन आशंकाओं अनैतिक यौनाचार, विवाह विच्छेद की तरफ उन्होंने इशारा किया था वो अब चारों तरफ दृष्टिगोचर हैं  ।

इसके साथ ही उन्होंने देशवासियों को उनके कर्तव्य की याद दिलाते हुए उनका उद्बोधन किया— “भारत! तुम मत भूलना कि तुम्हारी स्त्रियों का आदर्श सीता, सावित्री, दमयन्ती हैं, मत भूलना कि तुम्हारे उपास्य सर्वत्यागी उमानाथ शंकर हैं, मत भूलना कि तुम्हारा विवाह, तुम्हारा धन और तुम्हारा जीवन, इन्द्रियसुख, व्यक्तिगत सुख के लिये नहीं हैं, यह मत भूलना कि तुम्हारा समाज उस विराट महामाया की छायामात्र है। अफ़सोस कि हम ये सब भूल गये और वो भी बहुत ही जल्दी जबकि, उनको ये उपदेश दिये अधिक समय नहीं बीता पर, हमने स्वतंत्रता के गलत मायने निकले और अपनी जिंदगी पर अपना अधिकार मान वसुधैव कुटुम्बकमकी अवधारणा को पूर्णतया भुला दिया । लड़का-लड़की में जिस भेदभाव को मिटाने की बात हम आज करते हैं स्वामी जीने उस वक़्त भी ये सवाल उठाया कि जब वैदिक धर्म में स्त्री-पुरुष का कोई भेद नहीं किया गया और प्राचीन गुरुकुलों में बालक और बालिकाएं समान रूप से शिक्षा ग्रहण करते थे फिर अब ऐसा क्यों नहीं? इस तरह उन्होंने स्त्री-पुरुष भेदभाव के खिलाफ अपने विचार रखे जिसमें उन्होंने उदाहरण दिया कि, “विदेहराज जनक की राजसभा में किस प्रकार धर्म के गूढ़ तत्वों पर महर्षि याज्ञवल्क्य से वाद-विवाद हुआ था इस वाद-विवाद में ब्रह्मवादिनी गार्गीने मुख्य रूप से भाग लिया और कहा ‘मेरे दो प्रश्न मानो कुशल धनुर्धारी के हाथ में दो तीक्ष्ण वाण हैं’ पर, वहां पर उनके स्त्री होने के संबंध में कोई प्रश्न तक नहीं उठाया गया इससे अधिक साम्यता और क्या हो सकती हैं। उनका मानना था कि स्त्री यदि शिक्षित होगी तो वो अपना ही नहीं अपने साथ-साथ अपनी सन्तान का जीवन भी संवार लेगी इसलिये किसी को उसका भाग्यनिर्माता बनने की जरूरत नहीं वो अपना आप बनाने में स्वयं सक्षम हैं 

स्त्रियो की स्थिति में सुधार न होने तक विश्व के कल्याण का कोई भी मार्ग नहीं है

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© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)

११ जनवरी २०१८

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