मंगलवार, 30 जनवरी 2018

सुर-२०१८-३० : #मजबूरी_का_नाम_महात्मा_गाँधी



१५ अगस्त १९४७, देश आज़ाद हुआ लेकिन, उसके पहले ही वो दो हिस्सों में बंटा जिससे अखंड भारत का एक और खंड उससे जुदा हो गया इस तरह ‘आज़ादी’ तो आई जिसका इंतजार बरसों से देश कर हर एक वासी कर रहा था लेकिन, अपने साथ वो विभाजन का असहनीय दर्द ही नहीं एक ऐसा नासूर भी अपने साथ लाई जो आने साली सदियों को अपनी त्रासदी के दंश से लगातार चुभने वाला था ये तो वो जख्म जो कभी भर नहीं सकता बल्कि, उसे तो हर बार ऐसे ही दिनों में उसको फिर से ताज़ा होकर अपनी चुभन का तीव्र अहसास कराना होता हैं कि ‘देश’ किसी की जागीर नहीं और न ही किसी की बपौती कि बच्चे आपस में लड़े तो उसे अपनी संतानों को बाँट दे फिर भी ‘भारत’ में वो सब हुआ और चंद लोगों ने फैसला लेकर देश के टुकड़े-टुकड़े कर दिये बिना ये सोचे कि भविष्य में उसका अंजाम क्या होगा ? उन्होंने तो बस, एक आग लगा दी जो कभी बुझने वाली नहीं हैं

जब-जब भी २ अक्टूबर या ३० जनवरी आती या फिर गांधीजी का नाम बुझी वो आग फिर सुलग उठती जिसकी लपटें सामने वाले को भी झुलसाने लगती कि बहुत-से लोग एक बनी-बनाई परिपाटी के अनुसार ये घोषित कर देते कि आज के जो हालात हैं या देश का जो विभाजन हुआ उसकी वजह ‘गांधीजी’ हैं वो चाहते तो इसे रोक सकते थे । इसी पूर्वाग्रह के चलते स्थिति अक्सर, ऐसी बन जाती कि वो अपने विचार बुरी तरह से थोपने लगते और जो इतिहास के जानकार नहीं या जिनको इतना ज्ञान नहीं वो इनकी बातों में आकर इस बात का इतना धुंआधार प्रचार करते कि उसके आस-पास आने वाले भी फिर वही सब दोहराने लगते और फिर जैसा कि हम सब जानते कि एक झूठ भी सौ बार बोला जाये तो फिर वो सच बन जाता तो आज यही सच माना जाता कि देश के दो हिस्से करने के पीछे ‘गांधीजी’ का हाथ हैं । किसी से भी इस बारे में बात करो उसकी सुई यही आकर अटक जाती जबकि, बिना दिमाग लगाये भी यदि उस वक़्त के हालातों को समझे तो ये दिखाई देता कि गद्दी की ललक दो लोगों में जमकर थी एक भारत के प्रथम प्रधानमंत्री ‘जवाहर लाल नेहरु’ तो दूसरे पाकिस्तान के प्रथम शासक ‘मोहम्मद अली जिन्ना’ और दोनों के ही शब्दकोश में ‘सब्र’ या ‘धैर्य’ नाम का शब्द लापता था तो इंतजार करना उनके वश में नहीं था उन्हें तो तुरंत और एक-साथ ही देश के बागडोर अपने हाथ में लेने की जिद थी जीसे अक्सर, बच्चे अड़ जाते किसी चीज़ को पाने बिल्कुल वैसी ही हालत उन दोनों की थी कि हर हाल में मनचाही वस्तु चाहिये ही चाहिये चाहे कुछ भी हो जाये

इन दोनों जिद्दी बच्चों के बीच ‘गाँधी जी’ एक बेबस पिता या बोले तो एकदम लाचार, असहाय पालक की भांति खड़े थे जिसे समझ नहीं आ रहा था कि क्या करें क्योंकि ये बात वो भी जानते थे कि जिस देश को आज़ाद कराने की खातिर उन्होंने अपना सारा जीवन समर्पित कर दिया वो स्वतंत्र होकर उनके ही गले की फ़ांस बन गया दोनों को उन्होंने बेहद समझाया पर कोई भी सुनने या मानने को तैयार न था उन्होंने बहुत समझाया कि उनमें से कोई एक फ़िलहाल ‘प्रधानमंत्री’ का पद लेकर देश चलाये और दूसरा बाद में ये जिम्मेदारी संभाले पर, नहीं के सिवाय कुछ भी सुनने नहीं मिला तो ऐसे में एक ही विकल्प शेष था कि आधा-आधा उनको देकर इस उलझन से बाहर निकला जाये तो अंततः उनकी महत्वाकांक्षाओं के आगे सर झुकाते हुये उन्होंने ये निर्णय लिया दूसरे शब्दों में बोले तो अपनी बलि देकर उन्होंने ये कदम उठाया जिसका खामियाज़ा भी उन्हें भुगतना पड़ा आज भी इस देश का भ्रमित युवा असलियत को जाने बिना उनके त्याग, समर्पण, बलिदान, जीवन संघर्ष को समझे बिना उन पर उँगलियाँ उठाता यहाँ तक कि वो शख्स जिसने कभी देश के लिये कुछ न किया वो भी बड़ी शान से उनको गरियाता क्योंकि, ‘गांधी’ बनना मुश्किल हैं उनके जैसा संयमपूर्ण जीवन बिताना, अपना आप देश के नाम कर देना, सत्याग्रह के दम पर दुश्मन को झुकाना , सत्य-अहिंसा का पालन करना और अनुशासित व व्यवस्थित दिनचर्या में जीना किसी के भी वश की बात नहीं पर, ऊँगली उठाना बेहद आसान तो वही करते लोग और शायद, यही सब कारण जिसकी वजह से ये कहावत बनी ‘मजबूरी का नाम महात्मा गाँधी’ कि बहुत ही दुखी मन से वो बंटवारे के भागी और साक्षी बने थे

३० जनवरी १९४८ को अपराधबोध के इस भाव से उबारकर ‘नाथूराम गोडसे’ ने एक तरह से उन पर उपकार ही किया और ‘हे राम’ के उच्चारण ने उनको तार लिया... उसी मुक्ति के दिवस पर उनको मन से नमन... कि उन्होंने दिया हमें खुशियों भरा चमन... ☺ ☺ ☺ !!!    

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© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)

३० जनवरी २०१८

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