शनिवार, 6 जनवरी 2018

सुर-२०१८-०६ : #ख्यालों_की_जमीं_पर_ख्वाबों_के_आशियाने_टिकते_नहीं



देख सामने के
उन दरवाजों को बंद
यूँ लगता जैसे
कोई रूठकर मुंह फुलाये
पीठ कर बैठा हो...

जब वो खुलते तो
यूँ महसूस होता जैसे वो
खिल-खिलाकर हंस पड़ा हो
और बाहें फैलाये
सीने से लगाने बुला रहा हो...

कि उन दरवाजों पर
टिकी हुई एक जोड़ी आँखें
हर पल उनको तकती
उनसे ही अपने दिल की बातें कह
अकेले-अकेले कभी मुस्कुराती
तो कभी मुंह बिचका
ताने का कोई कंकर उछाल देती
इस तरह उनसे बतिया
खुद ही सवाल करती तो
खुद ही जवाब देती...

पता न चला
कब उसने इस तरह से
अपना एक अलग छोटा-सा
घरोंदा बना लिया था
जिसमें खुद को और उसको रख
जीना शुरू कर दिया था
इससे अनजान कि
उसे भी ये खबर हैं या नहीं
कि उसको अपने दिल
और आँखों की जुबां पर यकीं था
जो उससे वही कहते
जो वो सुनना चाहती थी

फिर भला किस तरह
हकीकत से पहचान होती...

सिवाय इसके
कोई चारा न बचा था
किस्मत के हाथ
उसे ये बताने के लिये कि
ख्यालों की जमीं पर
ख्वाबों के आशियाने टिकते नहीं
ज्यादा देर तक तो
उसने उन दरवाजों पर
उसके नाम के साथ
किसी दूसरे के नाम की तख्ती जड़वा
उसे बेनामों निशा कर दिया था
उसका घरोंदा आंसुओं के सैलाब में डूब
उसके अरमानों की धूल बन
कण-कण बह गया था ।।

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© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)

०६ जनवरी २०१८ 

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