मंगलवार, 9 जनवरी 2018

सुर-२०१८-०९ : #स्वामी_विवेकानंद_ज्ञान_मोती_०२



आज जबकि लोगों का पहनावे और ब्रांडेड कपड़ों पर अधिक जोर हैं जिसके लिये वे अपनी मेहनत की कमाई को बिना सोचे-समझे उस टैग के लिये गंवाने में एक पल का भी वक्त नहीं गंवाते जो महज़ कागज़ का एक टुकड़ा या शब्दों का एक वाक्यांश जिसकी व्यक्ति के व्यक्तित्व के आगे कोई बिसात नहीं लेकिन, जिस तरह का माहौल और दिखावे का चलन निकल पड़ा हैं वहां कोई व्यक्ति नहीं सिर्फ उसके कपड़ों को ही देखकर उसके बारे में धारणा बनाता हैं । उसके हिसाब से ही उससे ताल्लुकात स्थापित करता हैं बगैर ये सोचे-समझे कि उन आकर्षक वस्त्रों के भीतर छिपा शख्स वास्तव में कैसा हैं ? तभी तो टैग देखकर दोस्ती करने वाले बाद में पछताते कि कोई भी मोहर या ब्रांड चरित्रको प्रमाणित नहीं कर सकता न ही उसकी गारंटी दे सकता हैं । ये कोई बाज़ार या फैशन के मापदंडों से निर्धारित होने वाला कारक/फैक्टर नहीं बल्कि नैतिक मूल्यों से निर्मित होने वाला सतत विकासशील प्रक्रिया का परिणाम हैं जिसकी शुरुआत जन्म से ही तय हो जाती बल्कि यूँ कहे कि हमारी भारतीय संस्कृति में तो जन्म के पूर्व से ही इसके लिये ठोस आधारशिला तैयार की जाती तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी । गर्भ में शिशु के बीजारोपण से लेकर उसके अंतकाल तक के संस्कारों का प्रचलन जिनका वेदों में वर्णन हैं और जो अब लगभग समाप्ति की तरफ हैं कोई खेल नहीं वैज्ञानिक दृष्टिकोण से भी अधिक तार्किक जिसका सर्वश्रेष्ठ उदाहरण अभिमन्यु हैं जिन्होंने गर्भवस्था में ही चक्रव्यूह वेधन सीख लिया था । 

हम जितना अपनी संस्कृति अपनी जमीन और जड़ों से दूर हो रहे उतने ही खोखले और सिर्फ ब्रांड में ही तब्दील हो रहे बोले तो रोबोटबन रहे जिसके पास दिमाग तो जरुर हैं लेकिन, उस पर नियंत्रण की बागडोर फिलागल मार्किट ने थाम रखी हैं तो वही हमारे खाने-पीने, पहनने-ओढने ही नहीं हर एक वस्तु के लिये हमारी मानसिकता अपने अनुरूप तैयार करते और हम भी रोबोट की भांति कब उनकी भाषा बोलने लगते अहसास ही नहीं होता । संवेदनाओं की गिरावट का ये दौर इतना घातक जिसने हमारी सभ्यता-संकृति के साथ-साथ हमारी भावनाओं को भी लील लिया इसलिये अब बड़ी-से-बड़ी घटनाओं पर हम केवल औपचारिकता का निर्वहन कर अपने काम में लग जाते गोया कि हमने मान लिया कुछ नहीं बदल सकता सब कुछ जैसा चल रहा वैसा ही रहेगा हमारी ये सोच ही हैं जो हमें कुछ नया या प्रचलित धारा में बदलाव नहीं करने देती । हम पाश्चात्य संस्कृति और विचारधारा के इस कदर पोषक बन चुके हैं कि अपने ही देश में विदेशी दिखने लगे हैं जबकि हमारा सब कुछ अपने देश, अपनी जमीन और वातावरण के अनुसार निर्धारित था तो वही हमारी पहचान था लेकिन, अब हम अपनी उस अद्वितीय पहचान अपने गौरवशाली आभामंडल को नकली चमक-दमक में खो रहे इसलिये दुनिया की भीड़ में अलग नजर नही आ रहे जबकि स्वामी विवेकानंदजीने अमरीका जाकर भी अपनी भारतीयता पर आंच नहीं आने दी बल्कि वहां के लोगों को अपने रंग में रंग लिया था और हम भारत में रहकर उनके रंग में रंगे हुये सियार बने हुये हैं ।        

इसका बेहतर उदाहरण हैं स्वामी जी की विदेश यात्रा का ये प्रसंग जो हमें बताता कि बाहरी लिबास नहीं हमारी आंतरिक सोच, हमारा व्यवहार ही हमारा चरित्र हैं और अपनी पारम्परिक वेशभूषा पर हमें शर्म नहीं गर्व करना चाहिये पर, हम तो अपनी भाषा बोलना भी भूल गये माता-पिता का सम्मान, ईश्वर का ध्यान मधुर भाषण सबसे दूर तकनीक के मोहरे बन चुके हैं । एक वो भी नवजवान थे जो अपनी अंदरूनी ज्ञान की शक्ति से दुनिया भर को अपना दीवाना बना लिये थे वही जब एक बार विदेश गए तो उनका भगवा वस्त्र और पगड़ी देख कर लोगों ने पूछा, - “आपका बाकी सामान कहाँ है?” तब स्वामी जी बोल, ‘बस, यही सामान है’…. तो कुछ लोगों ने व्यंग्य किया कि, “अरे! यह कैसी संस्कृति है आपकी ? तन पर केवल एक भगवा चादर लपेट रखी हैं कोट पतलून जैसा कुछ भी पहनावा नहीं है ?

उन सबकी यह बात सुनकर स्वामी विवेकानंदजी मुस्कुराए और बोले, “हमारी संस्कृति आपकी संस्कृति से भिन्न हैं,  आपकी संस्कृति का निर्माण आपके दर्जी करते हैंजबकि, हमारी संस्कृति का निर्माण हमारा चरित्र करता है”

कितनी गहन और गंभीर बात कितनी सादगी से व्यक्त की उन्होंने कि, “संस्कृति वस्त्रों में नहीं, चरित्र के विकास में है” वाकई आज इस सूत्र और सुविचार की सर्वाधिक आवश्यकता जब वस्त्र या ब्रांड ही व्यक्ति की पहचान बनते जा रहे हैं चरित्र को तो दरकिनार कर दिया गया हैं क्योंकि, जितने महंगे कपड़े उतनी इज्जत व सम्मान का पात्र समझा जाता आदमी को तो ऐसे में चरित्र की जरूरत ही नहीं रह गयी इसलिये तो अपराध बढ़ रहे अतः हमें ‘स्वामी जी’ के जीवन के हर प्रसंग से सबक लेना चाहिये कि उन्होंने अपनी सादगी भरे ओजपूर्ण व्यक्तित्व से समस्त दुनिया को प्रभावित व् आकर्षित किया न कि अपने चमक-दमक भरे लिबास से इसलिये उनका वो प्रभाव आज भी उसी तरह कायम हैं
   
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© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)

०९ जनवरी २०१८

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