गुरुवार, 25 जनवरी 2018

सुर-२०१८-२५ : #इच्छामृत्यु_के वरदान_की_तिथि_भीष्माष्टमी


संसार में जो कुछ भी हम देखते-सुनते हैं वो सब कुछ पूर्व में ही वर्णित ‘महाभारत’ का ही कोई न कोई हिस्सा हैं क्योंकि, ये माना जाता हैं कि ऐसा कुछ भी मुमकिन नहीं जो ‘महाभारत’ में लिखा न हो या जो कुछ भी इस दुनिया में होता वो सब कुछ ‘महाभारत’ में कहीं न कहीं अवश्य मिलेगा याने कि जो महाभारत में हैं वही सामने आता और जो ‘महाभारत’ में नहीं वो कहीं नहीं कहने का तात्पर्य केवल इतना कि कोई भी अप्रत्याशित या नामुमकिन जो हम सोच सकते वो कहीं न कहीं इसके किसी प्रसंग में घटित हो चुका हैं कि इतनी विविधताओं से भरा और इतना बड़ा कोई दूसरा ग्रंथ नहीं जिसे समझ पाना जिसमें लिखी हुई कथाओं का मर्म समझ पाना सबके वश की बात नहीं कि आस्था को तर्क से सिद्ध कर पाना संभव नहीं इसलिये ऐसा प्रचारित कर दिया गया कि जो इसे अपने घर में रखेगा उनके घर ‘महाभारत’ हो जायेगा तो हर कोई न तो इसे अपने घर में स्थान देता और न ही पढ़ने का ही प्रयास करता फिर भी इसकी कहानियां इतनी अधिक प्रचलित कि हर कोई इसके पात्रों और उनके जीवन की मुख्य घटनाओं से बखूबी परिचित तो किसी का भी नाम लेना पर उससे संबंधित मुख्य बातें उसके जेहन में तैर जाती जिसमें बहुत बड़ा योगदान धारावाहिक का भी हैं जिसने बड़ी कुशलता और सावधानी से बेहतरीन कलाकारों के चयन और चुस्त-दुरुस्त पटकथा व प्रभावशाली संवादों के माध्यम से इसे एक बार फिर घर-घर में लोकप्रिय बना दिया जिसकी वजह से इसे पुनः समाज में मान्यता और एक पुख्ता मुकाम हासिल हुआ तो लोगों में उन चरित्रों के बारे में अधिक जानने की जिज्ञासा भी बढ़ी तो इसके कई संस्करण भी सामने आये और आज भी ये लोगों के लिये सबसे अधिक रोचक हैं

‘महाभारत’ का नाम लेते ही यूँ तो सबसे पहले श्रीकृष्ण की छवि ही मन में उभरती लेकिन, उसके बाद जो पात्र ख्यालों में आता वो निसंदेह ‘भीष्म पितामह’ का ही हैं जिनका जीवन जन्म से अपने निर्वाण तक इतनी अधिक अप्रत्याशित घटनाओं से भरा हुआ हैं कि पढ़ने वाला भौचक होकर उसे पढ़ता ही रह जाता हैं । अपने पूर्वजन्म में वे एक ‘वसु’ होते हैं लेकिन, एकाएक शापग्रस्त होने के कारण वे पतित पावन ‘गंगा’ के पुत्र के रूप में ‘देवव्रत’ बनकर जनम लेते हैं और अपने पिता ‘शांतनु’ से एक बेहद अनोखी मुलाकात के बाद वे उनके साथ ही रहने लगते हैं । फिर किस तरह से अचानक अपने पिता की मनोकामना पूर्ति के लिये वे एक कठोर प्रतिज्ञा लेते जो उनको ‘भीष्म’ के नवीन नाम व इच्छामृत्यु के वरदान से उनके एक नये अवतार का कारण बनती हैं । उसके बाद तो लगातार एक-एक कर के आश्चर्ययुक्त घटनाओं का अनंत सिलसिला शुरू होता हैं जिसके केंद्र में ‘भीष्म’ ही रहते हैं जो ‘अम्बा’ के स्वयंवर से उसको ले आने की वजह से अपने गुरु से भी लड़ जाते हैं और इस तरह वे जान-बूझकर ‘अंबा’ के रूप में भविष्य में ‘शिखंडी’ बनकर आने वाली अपनी मौत को खुद ही चुनते हैं । यहाँ तक कि द्रोपदी के चीर-हरण में मौन रहकर वो ‘महाभारत’ की आधारशिला भी स्वयं ही रखते हैं क्योंकि इसके बिना वो महासमर संभव भी नहीं होता और जो वे उस वक़्त हाथ उठाते तो कथा अपने सही अंजाम तक न पहुंच पाती कि बहुत कुछ जो उसके बाद होता वो ज्यादा जरूरी था । बहुत-से लोग अपनी स्थूल बुद्धि से इन सूक्ष्म प्रसंगों व इन विशेष कहानियों के गूढ़ अर्थ को समझ नहीं पाते तो इन पर प्रश्नचिन्ह लगाते या इनके निष्पाप व निष्कलंक किरदारों के पवित्र चरित्र पर ऊँगली उठाते हैं पर, जिन्होंने इनके पीछे छिपी उस मूल भावना को समझ लिया वो सवाल नहीं करते ।

‘भीष्म पितामह’ ने लगभग १५० बरस लम्बा जीवन जिया जिसमें उन्होंने एक साथ अनेक जिंदगियों को जिया और ५८ दिनों तक तीरों की शैया पर दर्द सहते हुये अपने इच्छा मृत्यु के वरदान को फलीभूत करने के लिए आज के दिन का इंतजार किया जिसे भीष्म अष्टमी के रूप में मनाया जाता हैं और उनकी आत्मा की शांति के लिये व्रत कर तर्पण किया जाता हैं ।

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© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)

२५ जनवरी २०१८

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