मंगलवार, 11 सितंबर 2018

सुर-२०१८-२५२ : #हिंदू_धर्म_गर्व_है_हमारा #विश्वगुरु_की_जो_आधारशिला_बना




११ सितंबर १८९३,
यदि भारत के इतिहास में ये दिवस दर्ज न होता तो शायद, आज लोग ये भी कहते कि ‘हिंदू धर्म’ तो महज़ एक कल्पना हैं मगर, अफ़सोस कि ज्यादा नहीं केवल १२५ साल पूर्व इस देश के उस हिस्से में जहाँ पर कि आज हिंदू व हिंदू धर्म की दुर्दशा हो रही उसी बंग भूमि में जन्म लिया ‘नरेन्द्र नाथ दत्त’ ने और अपने गुरुदेव ‘स्वामी रामकृष्ण परमहंस’ के आशीर्वाद से बनकर ‘विवेकानंद’ दुनिया भर में पुनः उस ज्ञान की ज्योत जलाई जिसे ब्रम्हांड विस्मृत कर रहा था

वो क्या हैं न कि हम भारतीयों की एक आदत हैं कि बहुत जल्दी दूसरों से प्रभावित हो जाते और अपने आपको हीन समझकर उसकी तरफ ऐसे ताकते कि उसकी कृपा दृष्टि हो जाए तो धन्य हो जाये इसलिये कभी-कभी कुछ ऐसी हरकतें भी कर जाते चंद लोग की न तो फिर वो पूरब की ही संस्कृति को संभाल पाते और न ही पश्चिम के कल्चर को ही पूर्णतया मन से अपना पाते जिसकी वजह से वो खुद को इन दोनों पाटों के बीच गेंहू में घुन की तरह पीसता हुआ महसूस करते क्योंकि, सबकी अपनी तासीर होती तेल और जल को कितना भी मिलाने की कोशिश करें वो अलग ही दिखाई देता हैं भले भ्रम हो कि वो मिल गये है

कुछ भी कहो यदि ये भिन्नता न होती तो फिर भला देस-परदेस की पहचान किस तरह से होती इसलिये जहाँ हमने जन्म लिया, जहाँ का अन्न-पानी ग्रहण किया और जहाँ जिस परिवेश में अपने जीवन का महत्वपूर्ण हिस्सा व्यतीत किया उसकी जड़ों से विलग हो पाना यदि इतना ही आसान होता तो फिर मिट्टी की कशिश झूठ ही कहलाती जो कहीं भी चले जाओ कभी न कभी जाने वाले को अपनी तरफ खींचती ही हैं जिसकी तड़फ से व्यथित होकर वो दौड़ा चला आता और जब उसे छूता तो पाता कि बेकार ही वो दर-बदर भटकता रहा मंजिल तो यहीं थी और जहाज के पंछी की तरह लौटना नियति होती है

कुछ को ये समझने के लिये कस्तूरी की तरह भटकने की सज़ा मिलती तो कुछ ऐसे होते जो अपने भीतर की रौशनी से समस्त जगत की प्रकाशित करते और ऐसी ही एक दिव्यात्मा थे ‘स्वामी विवेकानंद’ जिनको अपनी जननी, जन्मभूमि और जीवन मूल्यों का भलीभांति ज्ञान था तो इसकी महत्ता को सारी दुनिया पर प्रतिपादित करने उन्होंने ‘शिकागो धर्म सम्मेलन’ में जाने का निश्चय किया और वहां जाकर उन्हें जब शून्य स्थान पर जगह मिलती तो उसे भी ईश्वर कृपा मानकर स्वीकार किया और शून्य पर ही ऐसा तेजस्वी भाषण दिया कि विभन्न देशों से आये प्रतिनिधि भी मंत्रमुग्ध होकर उनको सुनते रहे क्योंकि, जिस तरह से उन्होंने अपने वक्तव्य की शुरुआत की वहीं सबके लिए नवीन था फिर जो बातें वहां पर की उनसे से तो सब नितांत अपरिचित थे ऐसे में उनसे प्रभावित होना कोई आश्चर्य की बात नहीं थी

उन्होंने बताया कि वो एक ऐसे देश से आये जहाँ के लोग प्रतिदिन समस्त विश्व की कल्याण की कामना करते क्योंकि, वे ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ की अवधारणा पर विश्वास करने वाले साधारण लोग हैं जिनके लिये ये सारा ब्रम्हांड ही एक घर हैं और सभी लोग एक परिवार की तरह तो वे किसी से द्वेष भावना नहीं रखते प्रकृति हो या मानव या जीव सभी से प्रेम करते सबके साथ मिलकर रहते और सह-अस्तित्व का पालन करते अपने देश की इन सभी मान्यताओं पर उन्हें गर्व है और उसी गर्व के साथ बताते कि उनका देश दूसरे धर्मों को भी सरंक्षण देता उनको फलने-फूलने के लिये पर्याप्त सुविधाएँ प्रदान करता और वे लोग जो सब जगह से ठुकराये जाते उन सबकी शरणस्थली उनका अपना देश हैं

उनके देश ने ही दुनिया को जीवन जीने का सिद्धांत बताया और उनके देश की सभ्यता से सबने ही कुछ न कुछ पाया है तो फिर ऐसे देश पर गर्व अपने आप ही हो जाता है पर, आज के विषैले माहौल में जब उनके इस भाषण को पुनः पढकर उस पर विचार करती तो पाती कि इस तरह कहने पर आज उन पर न जाने कितने सारे आरोप लग जाते और शायद, उनको अपने देश में वापस आने पर ही पाबंदी लग जाती इसलिये ये बहुत अच्छा हुआ कि वे थोड़ा पहले हुए और हमें आज भी अपने उसी भाषण के जरिये प्रेरणा दे रहे कि भारत को विश्वगुरु बनाने उनकी बताई राह पर चलना ही एकमात्र उपाय है... जय हिंद, जय भारत... ☺ ☺ ☺ !!!

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© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)
११ सितंबर २०१८

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