मंगलवार, 25 सितंबर 2018

सुर-२०१८-२६६ : #हुई_पितृपक्ष_की_शुरुआत #अपने_पूर्वजों_को_हम_करें_याद




इस पावन पुनीत धरती पर जन्म लेना ही नहीं मरना भी गौरव की बात होती क्योंकि, यहां मरकर भी पुनः वापस आने की एक ऐसी अवधारणा जिसकी वजह से पुनर्जन्म ही नहीं जन्मों-जन्मों तक अपने आधे-अधूरे कामों को पूरा किया जा सकता है देह से नाता टूटकर भी आत्मा में वो विचार अंश शेष रह जाता जो किसी कारणवश संपन्न नहीं हो पाता तो वही बार-बार उसी जगह बुलाता जहाँ उसे पूरा किया जाना है

कुछ जो अधूरा पीछे छूट जाता उसको पूर्णता प्रदान करने मानव फिर-फिर शरीर का चोला धारण कर अपनी जड़ों में लौटता उस माटी को चूमता जिसके ऋण से वो उऋण नहीं हो पाया था कभी जिसका पिता था अब उसका ही पुत्र बनकर पुनः उसी घर मे वापस आ जाता या फिर कोई संस्कार जो उसके निमित्त हो न सका पूरा उसको पूर्ण करवाकर आवागमन के इस चक्कर से छूटकर सदा-सदा के लिए मुक्त भी हो जाता है

ऐसी आत्माएं कम ही होती जो सारे बंधनों से मुक्त होकर मोक्ष चाहती अधिकतर तो अपने इंद्रियों के वशीभूत होकर इसी भूमि की मिट्टी, वायु, आकाश, अग्नि व जल में अनगिनत बार अपना वजूद खोकर उतनी ही बार फिर इन्हीं पंचतत्वों से निराकार से साकार रूप में आना चाहते आखिर, उस स्वाद को किस तरह से बिसरा दे जिसने उनकी इंद्रियों को हर स्वाद से परिचित करवाया फिर भी अभागा मन कभी भी संतुष्ट न हो पाया था

इसकी वजह ये शायद कि, संतुष्टि तो मोह-माया से विलग होकर परमात्मा में विलीन होने का सूचक जबकि, मन को तो अब भी कोई प्यास जिसकी आस में जहाज के पंछी सम वो उन गलियों में बारंबार आना चाहता है यही मांगता अपने प्रभु से कि चाहे ईट-पत्थर बन दे या फिर चाहे पेड़-पौधे या पंछी, जानवर या वापस इंसान पर जन्मभूमि यही हो और वतन भी यही हो क्योंकि, इस जगत में कहीं नहीं ऐसी आस्था, न ऐसे संस्कार जहां जीते-जी ही नहीं मृत्यु के बाद भी स्मरण किया जाता है

जब तक वापिस देह का दान नहीं मिल जाता आत्मरूप में भी वो यहीं विचरण करना चाहता और जब कोई अपना उसे याद करता या उसके लिए तर्पण करता और भोग रखता वो काग बनकर उसके घर आता है पितृपक्ष के ये पंद्रह दिन वास्तव में अपने उन्हीं पुरखों को समर्पित जो हमसे बिछड़कर इहलोक से परलोक गमन कर चुके इन दिनों वे यमपाश से मोहलत पाकर नीचे आ जाते अपने परिजनों को देखकर उनका दिया प्रसाद ग्रहण कर उन्हें आशीष देकर पुनः चले जाते है

इस पक्ष में पूरी सोलह तिथियाँ होती तो सभी तिथिवार अपने पूर्वजों के लिये श्राद्ध का आयोजन करते जिसकी शुरुआत आज से हो चुकी और स्वर्ग से दिव्यात्मायें धरती पर आ गई है बस, उनको ससम्मान उच्चारते ही उनके अदृश्य अहसास, उनके वरदहस्त को आप अपनी छलछलाती आंखों में स्वतः ही महसूस करोगे उन्हें छप्पन भोग नहीं बस, आपका श्रद्धायुक्त श्राद्ध चाहिए जिसके लिये किसी दिखावे या आडम्बर की नहीं केवल, अंतर से महसूस करने जरूरत है ।

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© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)
२५ सितंबर २०१८

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