गंगा के पाट की
तरह
सिकुड़ती जा रही
है मानवीयता
लुप्तप्राय
होने की कगार पर
जैसे सरस्वती
की तरह
दिखाई देती
संवेदना भी कम
यमुना की तरह
दूषित होती जा रही
मन की भावनाएँ
भी सारी
कौन बचायेगा
इन्हें?
करेगा सफाई
इनकी कौन??
तारेगा कौन
इन्हें
जो तारती थी
सबको कभी
नदियां तो हो
ही जायेंगी साफ कभी
मानसिकता जो
गंदी हो गई
उनका उद्धार
होगा कैसे???
इस कलियुग में
प्रकृति को बचाने
से भी
ज्यादा जरूरी
है...
विलुप्त होती
जा रही
मानवीय
संवेदनाओं का सरंक्षण ।
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© ® सुश्री इंदु
सिंह “इन्दुश्री’
नरसिंहपुर
(म.प्र.)
१९ सितंबर २०१८
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