गुरुवार, 20 सितंबर 2018

सुर-२०१८-२६१ : #असम_की_गुमनाम_वीरांगना #स्वतंत्रता_सेनानी_कनकलता_बरुआ




खतरे में हो देश अरे तब लड़ना सिर्फ धरम है
मरना है क्या चीज़ आदमी लेता नया जनम है

यूँ तो ये पंक्तियाँ बहुत बाद में लिखी गयी लेकिन, गीतों के चितेरे कहे जाने वाले गोपाल दास ‘नीरज’ ने इन्हें लिखने के लिये जिनसे प्रेरणा ले होगी वे निश्चित ही अपनी देश की आन-बान-शान पर प्राण उत्सर्ग करने वाले भारत माता के लाल और लाड़लीयां ही रहीं होगी जिन्होंने जब देखा कि हमारे वतन पर संकट के बादल लहरा रहे हैं देश को फिरंगियों ने अपने अधिकार में लेकर सभी को अपना गुलाम समझ रखा हैं तब इस अहसास के जागते ही स्वाधीनता का एक ऐतिहासिक संग्राम छेड़ गया जिसके कई बरस गुजर जाने और अनगिनत वीरों व वीरांगनाओं की शहादत के बाद १५ अगस्त १९४७ में जाकर हमने आज़ाद भारत में सांस ली थी

इस पर भी वे जिन्होंने इसके लिये अपनी जान गंवा दी उनमें से चंद ही ने उस स्वप्न को साकार होते देखा बाकी तो क्रांति की आग में अपना आप जलाकर फिर जन्म लेकर फिर से देश पर कुर्बान होने की चाह लेकर आते-जाते रहे जब तक कि अपनी मातृभूमि से उन ब्रिटिश शासकों को खदेड़ नहीं दिया था इनमें से केवल कुछ ही ऐसे नाम जो हम सबके होंठो पर रहते और उँगलियों पर हम उन्हें ही गिनते लेकिन, उनका क्या जिन्होंने अपना जीवन जिस देश की खातिर दिया उस देश के इतिहास में भी उनको जगह न मिली या जिनकी जयंती-पुण्यतिथि कब आई कब गई हमें पता ही नहीं चलता है

माना कि उन्हें इसकी चाह नहीं थी कि उनके जाने के बाद उनके नाम का जयकारा गूंजे या उनकी स्मृति में औपचारिकता का निर्वहन किया जाये फिर भी कुछ ऐसा भी नाम उन बड़े-बड़े नामों के बीच छिपे हुये नजर आते जिन्होंने उनकी प्रेरणा से ही ऐसा साहसिक कदम उठाया कि वो उम्र जिसमें नौजवान या युवती अपने भावी जीवन के स्वप्न देखते इनकी आँखों में अपने देश की आज़ादी का सपना समा गया था इसलिये फिर वे किसी जुल्मों-सितम से किस तरह घबराते वे आग बढ़कर सीने पर गोली खाई पर, न ही अपना और न ही अपने देश का सर झुकने दिया ऐसी ही गुमनामी की अँधेरी गलियों में अपने आपको भारत माता के चरणों में समर्पित करने वाली एक आभामय रौशनी की किरण ‘कनकलता बरुआ’ के रूप में नजर आती जो महज़ १८ साल की कमसिन वय में जंगे आज़ादी के शहीद होकर असम की ‘रानी लक्ष्मीबाई’ बन गयी थी   

८ अगस्त १९४२, मुंबई अधिवेशन में ‘अंग्रेजों भारत छोड़ो का प्रस्ताव पारित हुआ और उसके बाद देश के कोने-कोने में आग की तरफ फैल गया जिसके बाद असम में भी कई शीर्ष क्रांतिकारियों को ब्रिटिश सेना ने जेल में डाल दिया जिसके कारण सरकार के विरोध स्वरुप २० सितंबर १९४२, के दिन तेजपुर से ८२ मील दूर ‘गहपुर थाने’ पर तिरंगा फहराने का निर्णय लिया गया इसके बाद क्रांतिकारियों का एक दल ‘भारत माता की जय’ का नारा लगाते हुये निकल पड़ा अपने गंतव्य की तरफ जिसमें सबसे आगे तिरंगा थामे चल रही थी १८ साल की नाजुक ‘कनकलता बरुआ’ जिसके परिजन उसके विवाह की तैयारियों में जुटे थे मगर, उसने तो देश को अपना सर्वस्व मान लिया था तो कैसे उनकी बातों में आती इसलिये लेकर भारतीय तिरंगा और अपनी जान हाथ में सबके साथ वो निकल पड़ी थी

जहाँ थाने के प्रभारी ने उनका रास्ता रोका तो ‘कनक’ ने कहा, “हम केवल थाने पर तिरंगा फहराना चाहते हैं और उसके बाद चले जायेंगे” मगर, प्रभारी न माना उसने उनको गोलियों से भूनने की धमकी दी पर, हौंसलों से बुलंद इरादे कब टले तो न मानी उनकी बात आगे बढ़ चले उन्हें कब परवाह थी मरने की तो ‘स्वतंत्रता हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है’ और करेंगे या मरेंगे कहते हुये वे आगे बढ़ते गये तब हारकर पुलिस ने गोलियां चला दी जिसमें सबसे पहली गोली उस सुकुमार बाला के सीने पर लगी पर, इतने पर भी उसका तिरंगे वाला हाथ उपर ही रहा जिसने बाकियों को भी जोश दिलाया गोलों खाकर लोग गिरते रहे झंडा पकड़कर अगले आगे बढ़ते रहे अंततः सफल हुये उनकी इस वीरता ने ही उन्हें ‘असम की लक्ष्मीबाई’ बना दिया था

आज उनके उस बलिदान दिवस पर उनको नम आँखों से शत-शत नमन... वंदे मातरम... जय हिंद... जय भारत... ☺ ☺ ☺ !!!

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© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)
२० सितंबर २०१८

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