गुरुवार, 6 सितंबर 2018

सुर-२०१८-२४७ : #पोस्ट_पब्लिक_पर_कमेंट_की_मनाही #क्या_नहीं_हैं_ये_तानाशाही




‘रिया’ ने फेसबुक पर एक पोस्ट डाली कि,

“जिस तरह सम-लैंगिकों व अनुसूचित जाति वर्ग को उनका अधिकार मिला उसी तरह से स्त्रियों को स्वतंत्रता से जीने का अधिकार कब मिलेगा ? क्या सरकार और संविधान इसी तरह से उनके साथ भेदभाव करता रहेंगे ?? कब तक आधी आबादी पितृसत्ता को ढोती रहेगी कब उसके लिये भी कोई एक्ट या कानून बनेगा जहाँ वो अपने निर्णय खुद ले सकेगी ???”
जो सहमत नहीं कृपया... वो मेरी पोस्ट से दूर रहे

जिस पर कुछ उसके समर्थन में तो कुछ विरोध में कमेंट्स आये जैसा कि अमूमन सभी की ऐसी किसी विवादास्पद या तार्किक पोस्ट पर होता तो ऐसे में ‘रिया’ अपने परिचितों या फ्रेंड्स को तो उनकी प्रतिक्रिया पर फटाफट और बढ़िया रिप्लाई कर रही थी लेकिन, जहाँ मतभेद या मनभेद था या बेहद ही उग्र तरीके से टिप्पणी की गयी थी वहां उसकी जगह उसके दोस्त ही प्रतिउत्तर दे रहे थे वो भी बेहद खराब तरीके से जिसने ‘प्रियंका’ का दिमाग खराब कर दिया क्योंकि, उसे जवाब की अपेक्षा उससे थी जिसने ये पोस्ट की थी

मगर, उसकी जगह ऐसे लोग उसको जवाब दे रहे थे जिन्हें न तो वो जानती थी और न ही जिनके जवाबों से ही वो संतुष्ट थी जो उसकी कमेंट के बदले दिये जा रहे थे पर, लगातार उसके इसरार करने पर भी ‘रिया’ ने कोई उत्तर नहीं दिया ये पहली बार नहीं था जबकि, ऐसा हुआ था उसने महसूस किया कि बहुत से लोग ऐसा करते हैं जो खुद रिप्लाई नहीं करते और न ही अपने दोस्तों को ही ऐसा करने से रोकते जिससे दो अजनबियों के बीच अनचाहे ही झगड़ा हो जाता कहने को तो वे भी अजनबी लेकिन, जब फ्रेंड रिक्वेस्ट एक्सेप्ट की तो फिर दोस्त बन गये और समय बीतने पर एक-दुसरे को जानने भी लग गये थे

पर, ये ‘अब्दुल्ला दीवाने’ कहीं से कहीं तर्क फ्रेम में ही नहीं तो फिर किस तरह से उससे इस तरह से बात कर सकते उसका अपमान कर सकते और ‘रिया’ न तो उन्हें ही चुप कराती और न उसे ही जवाब देती क्या ये सही है ? क्या इनको ‘रिया’ ने ‘पोस्ट गार्ड’ नियुक्त किया हैं जो ये उसकी पोस्ट का बचाव कर रहे हैं ? वो बेतरह प्रश्नों में उलझ गयी थी कि यदि इसे ‘सोशल मीडिया’ बोलते तो क्या यहाँ कोई समाजिक बंधन नहीं या किसी तरह के एटिकेट्स का पालन जरूरी नहीं या फिर इसे महज़ ‘आभासी दुनिया’ समझना ही ठीक भले, बहुत-से लोगों को वास्तव में भी जानते और इस दुनिया के भी कई लोगों से मुलाकात हो चुकी जिन्होंने ये अहसास दिलाया कि जिस तरह से हमारा ये संसार वैसे ही यहाँ भी सब लोग है आखिर उनसे ही मिलकर तो ये वर्ल्ड भी बना है तो फिर क्या यहाँ उस तरह का शिष्टाचार पालन गलत हैं या फिर यहाँ लोग मुखोटे उतारकर रहते हैं ?

वो जितना सोचती उतना ही उलझती जाती क्योंकि, वो संवेदनशील थी तो ये सब चीजें उसे परेशान करती थी जिसका परिणाम हुआ कि उसने प्रतिक्रिया देना कम कर दिया क्योंकि, आजकल उसने देखा अधिकांश लोग अपनी पोस्ट पर हिदायत डाल देते कि दूर रहे या कुछ ऐसा लिखो जो मनमाफ़िक नहीं तो लिख देंगे कि हटो यहाँ से या कुछ ज्यादा बुद्धिजीवी तो मेरी वाल पर गोबर न करे टाइप की घटिया इबारत भी लिख देते और आश्चर्य की बात ऐसी पोस्ट वो सार्वजनिक डालते

वो सोच रही थी कि, एक फिल्म निर्देशक या लेखक भी अपनी फिल्म या किताब रिलीज कर देता तो वो आमजन की हो जाती फिर जिसकी जो मर्जी वो उस पर वैसी राय बनाये पर, ये लोग तो इतने बड़े वाले कि सबको अपने विचार पेश तो कर रहे पर, चेतावनी के साथ ये सब क्या है ? यदि उनको अपनी बात के खिलाफ कुछ सुनना नहीं तो उसे सिर्फ अपने उन दोस्तों  से ही शेयर करें जो उनकी जी-हुजूरी करते पब्लिक भी करेंगे और बोलने भी न देंगे ये तानशाही नहीं तो क्या है ?

क्या इस तरह की बद-जुबानी को प्रश्रय देना चाहिये या अलग हो जाना चाहिये वो पलायनवादी मिज़ाज की नहीं थी तो अब तक यहाँ बनी हुई थी पर, इन सबने उसके भीतर एक निरपेक्षता पैदा कर दी अब वो सबको पढ़ती मगर, कुछ भी लिखती नहीं थी जिसकी वजह से कुछ लोग उसे अहमी समझने लगे थे पर, वो किसी को किस तरह से समझाये कि यहाँ अपनी मन की बात लिखने पर ‘ब्लॉक’ या ‘अनफ्रेंड’ की तलवार लटकती रहती और जिन्हें उसने खुद आगे होकर अपनी फ्रेंड लिस्ट में जोड़ा उन्हें वो छोडना नहीं चाहती तो चुपचाप पढ़ती रहती थी

जब कोई ऐसी पोस्ट देखती तो उँगलियाँ की-बोर्ड पे टाइप करने मचल पड़ती तब वो मोबाइल बंद कर थोड़ी देर के लिये दूर हो जाती लेकिन, सोचती जरुर कि इस तानाशाही का कोई समाधान हैं क्या ???      
     
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© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)
०६ सितंबर २०१८

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