बुधवार, 26 सितंबर 2018

सुर-२०१८-२६७ : #विधवा_विवाह_नारी_शिक्षा_के_पैरोकार #ईश्वरचंद_विद्यासागर_लाये_समाज_में_बदलाव


  
मर्द को दर्द नहीं होता...

ये महज़ एक फ़िल्मी संवाद जिसमें सच्चाई तभी ठीक जब बात तकलीफों या मुश्किल हालातों में न घबराने की हो लेकिन, हकीकत में या असल ज़िन्दगी में तो वही मर्द जिसको दर्द होता जो दूसरों की तकलीफ़ से पिघल जाता, किसी को परेशानी में देखें तो अपना दर्द भूलकर उसकी मदद को आगे आता न कि अपने मर्द होने के झूठे गुमान को जीते हुये केवल औरतों पर अपने हाथ आज़मा खुद को मर्द कहता है

कुछ ऐसा ही महसूस होता जब ‘ईश्वरचंद विद्यासागर’ जैसी शख्सियतों के बारे में पढ़ते या सुनते जिन्होंने औरतों के हक के लिये कानून तक में बदलाव ला दिया और समाज की अनेक कुरीतियों को मिटाकर उसे स्त्रियों के लिये सुविधाजनक बनाने में मदद की यहाँ तक कि अक्सर, उनके हक की लड़ाई लड़ने के लिये अपने उस अहसास तक को भूला दिया जिसके आधार पर इसे पुरुष प्रधान समाज का दर्जा दिया जाता है

उनका तो ये ही मानना था कि स्त्री हो या पुरुष दोनों एक समान अतः उनको बराबरी का दर्जा ही नहीं एक समान अधिकार भी हासिल हो क्योंकि, भेदभाव के अतिरेक से औरतों की शख्सियत न केवल खत्म होती जा रही बल्कि, उसकी वैयक्तिक पहचान पर प्रश्नचिन्ह लगा रहा समाज में उसे केवल आदमी की परछाई की तरह ही अभिव्यक्त किया जा रहा और घरों में भी उनके साथ उसी तरह से व्यवहार किया जा रहा जो किसी भी राष्ट्र की उन्नति में बाधक है

इसलिये जब उन्होंने अपने आस-पास इस तरह की स्थितियां देखी जिसमें नारी जाति को घुट-घुटकर जीते, अपने अरमानों को मारते व बाल-विवाह के द्वारा उनके जीवन को असमय ही बलिदान होते और विधवा होने पर उनके साथ अछूतों की तरह व्यवहार होते देखा यहाँ तक कि उन्हें शिक्षा से वंचित रखा जाता तो ये सब देखकर उनसे रहा न गया और उसके खिलाफ लगातार बुलंद तरीके से आवाज़ उठाई

जिसका नतीजा कि पुनर्विवाह एक्ट लागू हुआ जिसे उचित सिद्ध करने उन्होंने अपने पुत्र का विवाह भी एक विधवा से किया जो उनकी कथनी व करनी की समानता को दर्शाता है यही नहीं बच्चियों की शिक्षा हेतु उन्होंने विद्यालयों का स्वयं निर्माण किया व सरकार को भी इसके लिये प्रेरित किया समाज सेवा व परहित का गुण उनके भीतर जन्मजात ही था तो वे इसका कोई भी मौका नहीं छोड़ते थे

अपनी आजीविका से प्राप्त आय का भी पूरा उपभोग खुद के लिये न कर केवल जरूरत लायक ही अपने परिवार पर खर्च करते बाकी जरुरतमंदों को दे दिया करते थे उनकी अपार मेधाशक्ति उनको लेखन के प्रति भी आकर्षित करती तो उन्होंने उस क्षेत्र में भी काम किया और बांग्ला भाषा के लिये भी काम किया उसे न्य स्वरुप प्रदान किया इस तरह उन्होंने अपनी जन्मभूमि अपने प्यारे वतन के पुनर्निर्माण में अपनी तरह से पूरा सहयोग किया जिसकी वजह से उन्हें आधुनिक बंगाल का जनक भी कहा जाता है

इन्होने अपने जीवन दर्शन व स्त्री हक के लिये सामाजिक सुधारों से ये साबित किया कि नर व नारी एक-दूसरे के पूरक है कोई किसी से कम न ज्यादा और दोनों मिलकर ही राष्ट्र निर्माण व विकास में योगदान कर सकते इस तरह उन्होंने आज के फेमिनाओं को ये सबक सौ साल पहले ही दे दिया कि स्त्री के लिये जब पुरुष लड़ता और पुरुष के लिये स्त्री कुछ भी करने को तैयार रहती तो दोनों के समन्वय से ही घर-परिवार व देश विकास के पथ पर आगे बढ़ता कोई अकेला ये काम नहीं कर सकता मिलकर ही ये सम्भव है

इसलिए किसी को कमतर या नीचा बताने से बात न बनेगी एक साथ हाथ में हाथ लेकर खड़े होने व चलने से ही देश बदलेगा और उसे बदलकर दिखाया भी उन्होंने जो फेमिनिज्म की सही व्याख्या करता कि इसका मतलब पुरुषों को आरोपी नहीं बनाना बल्कि, उसके समकक्ष आने के लिये उसके सहारे को स्वीकारना है जिससे वो कमजोर नहीं बल्कि अधिक ताकतवर बनेगी क्योंकि, शक्ति का प्रतीक तो वही है जिसे पाकर वह भी शक्तिशाली बनता है     

आज जयंती पर ऐसे समाज सुधारक, विद्वान, बहुमुखी प्रतिभाशाली, तेजस्वी व्यक्तित्व के धनी ‘ईश्वरचंद विद्यासागर’ को शत-शत नमन... ☺ ☺ ☺ !!!

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© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)
२६ सितंबर २०१८

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