सोमवार, 24 सितंबर 2018

सुर-२०१८-२६५ : #उड़ने_दो_उम्मीदों_की_तितलियाँ #करने_दो_मन_बगिया_में_अठखेलियाँ




मन की कोमल धरा पर पड़ती है जब चाहतों की रिमझिम बूंदें तो अनायास ही वहां ख्वाबों-ख्यालों की एक नन्ही-सी बगिया महकने लगती जिसमें फिर अनेक ख्वाहिशें भी तितली की तरह मंडराने लगती पर, हम ही अक्सर, उनकी परवाज को बांध देते, रोक देते उनकी उड़ान को कभी अपने परिवार की सीमाओं तो कभी समाज की बंदिशों की वजह से और पता ही न चलता कि उस घुटन में वो कब खामोश दम तोड़ देती हैं

आखिर, सबको तो ऐसा माहौल मिलता नहीं कि वो जो चाहे वो हासिल कर ले या समाज की उनको परवाह न हो अमूमन तो ऐसे लोगों का ही प्रतिशत अधिक जिनको समझौते करते हुये ही अपना जीवन गुज़ारना पड़ता तो फिर किस तरह से वे तितली जैसी नाज़ुक उम्मीदों को स्वतंत्र विचरण की अनुमति दे सकते इसलिये उनको पाबंदियों की बेड़ियों से जकड़ देते जिसका नतीजा कि वे केवल अरमान ही नहीं मरते साथ उनके जीवन की कोई उमंग भी दम तोड़ देती है

इस तरह से जीते-जीते वे खुद भी नहीं जान पाते कि कब उनके भीतर की पूरी बगिया ही नहीं बल्कि, जीवन का वो रस ही सूखा जाता जिसके होने से जिंदगी में सरसता का बोध होता और इस तरह अनजाने ही वे नीरस बन जाते इतने कि उनके आस-पास भी नकारात्मकता का एक ऐसा मंडल निर्मित हो जाता जिसके नजदीक आने वाला भी उसके प्रभाव में आकर स्वतः ही निराशावादी ही जाता है

बचपन से ही उनको लगातार इस तरह से रोक-टोक के माहौल में रखा जाता कि यदि उनको आगे चलकर किसी तरह से आज़ादी मिल भी जाये तो पांव नहीं उठते या आत्मविश्वास ही इतना कम हो चुका होता कि जो कुछ संभव भी होता वे उसको भी नहीं आज़ामना चाहते बस, खुद को हालातों के हवाले कर चुपचाप जिये जाते जबकि, यदि चाहते तो जब पहली बार अपने ही हाथों मारा था अपनी इच्छा को उस समय भी विकल्प तलाशा होता तो शायद, मिल जाता कोई ऐसा अवसर कि उम्मीद की कली मुरझाने की जगह खिल ही जाती

ये भी किया जा सकता था कि भले, उस वक़्त अपने अरमान को पूरा कर पाना नामुमकिन था तब भी उसको मारने या मरने देने की जगह अनुकूल अवसर का इंतजार किया जा सकता था तो जिस तरह जीने के लिये मानव संघर्ष करता उसी तरह उनको भी हालात के हवाले कर देने से वे भी अगर, शक्तिशाली होती तो न सिर्फ़ जीवित रहती बल्कि, संभावना शेष रहती तो कभी गुल खिला ही देती     

केवल इतना ही काफी नहीं कि हम अपनी तमन्नाओं को इतनी अधिक वरीयता दे कि उसके सामने किसी को भी तवज्जो न दे जैसा कि आजकल ज्यादातर देखने में आता कि बच्चे हर हाल में अपनी मनमानी करना चाहते फिर चाहे पालक को कितना भी परेशान क्यों न होना पड़े अतः इसके साथ ही ये भी जरूरी कि हमारा विवेक इतना जागृत हो कि हम अपनी कामनाओं को समझ सके क्या वे सचमुच ही हमारे भावी जीवन के लिये हितकारी है

ऐसा कोई नहीं जिसके मन में किसी भी प्रकार की कोई भी इच्छा न हो लेकिन, अगर हमको अच्छा-बुरा, सही-गलत का भेद ही न मालूम हो तो फिर उनको सहेजना है या फिर मरने देना है इसका निर्णय कठिन होगा इसलिये ही तो पहले बच्चों के लालन-पालन में अनुशासन का भी ध्यान रखा जाता था जो आजकल लुप्तप्राय है आज तो सबको अपना जीवन ही इतना कीमती लगता कि ‘माय लाइफ, माय चॉइस’ ही उनका जीवन मंत्र होता तो ऐसे में बस, किसी भी तरह बच्चे से पीछा छुड़ाने उसकी हर बात को मान लिया जाता है

इस तरह के बच्चों के के शब्दकोश में ‘धैर्य’, ‘समझौता’, ‘स्नेह’, ‘सांझेदारी’, ‘परस्पर मेलजोल’, ‘सहायता’ जैसे शब्द होते ही नहीं जिनकी तादाद बढ़ती जा रही ये केवल अपने लिये और अपनी वासनाओं के लिये जीते है... इनकी ख्वाहिशों को यही नाम दिया जायेगा क्योंकि, इनके लिये अपनी इच्छापूर्ति ही सर्वोपरि तो ख्वाहिशों की तितली को उड़ने देने की सलाह उनके लिये ही जो जानते कि उनके मन में ‘शुभकामना’ है ‘दुर्भावना’ या ‘वासना’ नहीं तब भले समय लगे लेकिन, वे अवश्य ही पूरी होती हैं  
  
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© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)
२४ सितंबर २०१८

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