रविवार, 30 सितंबर 2018

सुर-२०१८०-२७१ : #कहानी #लिव_इन_वाली_सती_सावित्री




सावित्री... सावित्री... कहाँ हो तुम
बदहवास हालत में घर में घुसते ही लगभग चिल्लाते हुये उसने कहा

यहाँ हूँ रीमा आ जा अपने कमरे से उसने आवाज़ दी,
यार, तुझे कितनी बार कहा कि मुझे सावित्री नहीं ‘सेवी’ बुलाया कर हमेशा भूल जाती है पता नहीं मम्मी-पापा ने दादा-दादी की बात मानकर मेरा नाम ‘सावित्री’ क्यों रख दिया ओल्ड फैशन ही नहीं बकवास मानसिकता से भी जुड़ा हुआ अच्छा, बोल क्या हुआ जो इतनी परेशान ही नहीं रुआंसी भी नजर आ रही है

उसके गले लगते हुये कांपते स्वर में रीमा बोली, “वो नहीं रहा उसका दोस्त अनवर सुबह आया था तो तेरे नाम लिखा उसका अंतिम खत देकर गया” और ये कहकर उसने एक लिफाफा उसे पकड़ा दिया

सावित्री का चेहरा फक्क से सफेद पड़ गया उसने डरते-डरते उसे खोला और उसमें लिखी इबारत को पढ़ने लगी...

मेरी सावित्री,

हालांकि, मैं ये कहने या लिखने का हक़ उसी दिन खो चुका था जब तुमने मुझे छोडकर जाने का निर्णय लिया फिर भी जब से तुम्हें देखा यूँ लगा तुम मेरे ही लिये बनी हो फिर जब तुम्हारा नाम अपने नाम के साथ जोड़ा तो लगा अब ये परफेक्ट हुआ पर, तुम्हारी जिद ही थी कि अभी मैं शादी के बंधन में बंधने और उसकी जिम्मेदारियां उठाने तैयार नहीं हूँ पर, हम लिव-इन में रह सकते है तो मैंने तुम्हारी बात का मान रखा क्योंकि, मुझे यकीन था कि अपनी मुहब्बत से मैं एक दिन जरुर तुम्हें शादी के लिये मना लूँगा मगर, नहीं पता था कि किस्मत में हमारा मिलन लिखा ही नहीं है

तभी तो साल बीता ही नहीं था कि मुझे कैंसर हो गया और जब तुम्हें ये खबर सुनाई तो तुमने मेरा साथ देने की बजाय मुझे छोड़ना बेहतर समझा सही भी है तुम कोई विवाहित पत्नी तो नहीं थी कि मेरे सेवा करना या साथ देना तुम्हारी मजबूरी बनता तुम तो एक आधुनिक, आज़ाद ख्याल बराबरी का दावा रखने वाली आत्मनिर्भर लड़की थी तो तुम्हें लगा कि तुम अपना कीमती समय एक मरते व्यक्ति के साथ बिताने की जगह कैरियर में लगाओगी तो ज्यादा फायदेमंद होगा गलत नहीं थी तुम मेरा फैसला डॉक्टर ने बता दिया था ज्यादा न जी पाउँगा ऐसे में तुम्हें उस वक़्त कंपनी का प्रस्ताव स्वीकार करते हुये मुझे छोड़कर अमरीका जाना ठीक लगा मैं कैसे रोकता कोई अधिकार ही नहीं था

पता सावित्री, मर तो मैं उसी दिन गया था पर, जब तक ऑफिशियली डिक्लेअर नहीं होता तब तक जीना ही था तो जीता रहा मगर, एक लाश की तरह जिसे यमराज घसीटता हुआ चल रहा था पर, साँसें ही न जाने क्यों अटकी थी शायद, इस उम्मीद पर कि मेरी सावित्री मुझे बचा लेगी पर, कब तक...? एक दिन मौत आयेगी ही ये सोचकर तुम्हारे नाम ये पत्र लिखकर छोड़ जा रहा हूँ साथ अपनी वसीयत भी जो कुछ मेरा था सब तुम्हारा है आखिर, तुम्हारे प्यार की वजह से ही तो मुझे वो सब मिला था हमारे नाम हमेशा साथ-साथ लिये जायेंगे यही एकमात्र ख़ुशी है

अलविदा...

तुम्हारा,
‘सत्यवान’  

खत उसके हाथ से छूट गया उसका वो ख्याल कि ‘सती सावित्री’ जैसी कहानियां सुनाकर उसकी दादी-मम्मी ही वैसा आचरण कर सकती मगर, वो तो अंग्रेजी माध्यम से पढ़ी-लिखी उच्च शिक्षिता ऐसी बचकानी बातों को माने तो फिर पढाई-लिखाई का फायदा ही क्या उस पर, स्त्रीवाद और बराबरी के झंडे को लकर चलने की ख्वाहिश ने हर उस रिवाज को ठोकर मारते हुये आगे बढ़ने की ठान ली जो उसके कदमों में बेड़ियाँ डालकर उसे तरक्की करने से रोकते थे आज जब सब कुछ पास में था तब सच्चे प्रेम की तलाश में भटकती वो आज ही ये जान पाई कि क्यों उसकी दादी ने उसका नाम ‘सावित्री’ रखा था शायद, कुछ तो असर होता है इन पौराणिक नामों में जिसकी तासीर अक्सर, तकदीर बन जाती है

उसी का वो भ्रम जो वो बड़े गर्व से घर में कह करती थी कि, ‘लडकियों को सती सावित्री बनाना बंद करो अब सत्यवान पैदा नहीं होते’ आज शीशे की तरह टूटकर उसके पैरों तले बिछा था जिसकी किरचें उसके ही पाँव में चुभ रही थी  

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© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)
३० सितंबर २०१८

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