शनिवार, 22 सितंबर 2018

सुर-२०१८-२६३ : #पहन_किरदारों_के_विविध_मुखौटे #अभिनय_से_जीवंत_करती_उन्हें_दुर्गा_खोटे




आज अधिकतर युवाओं का स्वप्न बॉलीवुड में जाकर अपना भाग्य आजमाना होता है लेकिन, ये तब की बात है जब हिंदी फिल्म इंडस्ट्री की शुरुआत मूक फिल्मों से हुई थी और दादा साहब फाल्के जी को अपनी कहानी में नायिका के पात्र के लिये कोई महिला नहीं मिली क्योंकि, तब तो इस कार्य को हेय दृष्टि से देखा जाता था और इसमें काम करने के लिये तवायफ़ तक तैयार नहीं थी तो अभिनेत्री की जगह पुरुष से ही उस महिला पात्र की भूमिका अभिनीत करवाई गयी

उसके बाद समय चक्र घूमा तो न केवल फिल्मों ने बोलना शुरू किया बल्कि, अच्छे-अच्छे परिवार की पढ़ी-लिखी लडकियों ने भी इस क्षेत्र में कार्य करना अपना गुडलक समझा इस तरह हिंदी फ़िल्मी दुनिया अपने पैरों में खड़ी होने लगी जिसको इस स्थिति तक लाने में एक नहीं अनेक व्यक्तियों का हाथ हैं उनमें से एक नाम प्रभावशाली व्यक्तित्व की धनी, ममतामयी कोमल हृदय की मलिका और देवीय सौन्दर्य की आभा से जगमगाती संवेदनशील अभिनेत्री ‘दुर्गा खोटे’ भी थी

जिन्होने षोडशी नायिका से लेकर उम्रदराज परदादी तक का सफर तय किया और फिल्म इतिहास में मील का पत्थर बन गयी जिनको देखकर न जाने कितनी लडकियों ने न सिर्फ अपने मन में हिरोइन बनने का सपना देखा बल्कि, उसे सच भी कर दिखाया इस तरह ‘दुर्गा खोटे’ के रूप में हम सबको ऐसी अभिनेत्री मिली जो न कल पढ़ी-लिखी थी बल्कि, एक संभ्रांत परिवार में पली-बढ़ी भी थी

इसलिये वो अपने अधिकारों व कर्तव्यों के प्रति भी सचेत थी तभी तो विवाह के बाद अपने आपको एक कुशल गृहिणी के रूप में परिणित करने के बाद भी अपने आपको या अपने अंदर छिपी अभिनय की प्रतिभा को छिपाकर नहीं रखा और जब उनको अपनी सहेली ‘शिवानी’ से एक फिल्म ‘ट्रैप्ड’ का प्रस्ताव मिला तो उन्होंने उसे अस्वीकार नहीं किया और अपने परिवार वालों की सहमती से उस फिल्म में काम किया हालाँकि, फिल्म प्रदर्शित होते ही फ्लॉप हो गयी पर, वे निराश नहीं हुई

इसकी वजह ये थी कि उनके परिवार वाले उनके साथ थे तो उन्होंने उनको संभाल लिया जो साबित करता कि यदि परिवार वाले अपनी सन्तान पर भरोसा करें और उसको उनका मनमाफिक काम करने दे तो फिर वे उनसे छिपकर कोई कदम नहीं उठाते और यदि असफल भी हो तो घबराकर आत्महत्या जैसा घातक कदम नहीं उठाते और न ही अवसाद में ही फंसते तो यही हुआ उनके साथ पहली फिल्म की असफलता में परिवारवालों का साथ मिलने से हौंसला टुटा नहीं इसलिए दुबारा जोखिम लेने का साहस करते हुए वी. शांताराम की हिंदी व मराठी में बनने वाली मूवी ‘अयोध्या चा राजा’ में काम किया जिसके दोनों संस्करण सुपर हिट रहे

उसके बाद आई उनकी ‘माया मछिन्द्र’ जिसकी अपार सफलता ने उनको एक स्टार का दर्जा दिला दिया और फिर जो सिलसिला शुरू हुआ तो थमा नहीं एक-के-बाद एक लगातार अनेक फ़िल्में, अनेक भूमिकाएं उन्होंने अपने जीवंत अभिनय से यादगार बना दी जिसमें उनके परिवार वालों का सहयोग भी उल्लेखनीय हैं जिन्होंने उसकी फिल्मों के फ्लॉप होने पर जहाँ उनको सहारा दिया तो उसके हिट होने पर उसकी खुशियों में हिस्सेदार भी बने अन्यथा दो बच्चों की माँ होकर वे किस तरह से उसे जमाने में ये सब कर पाती जबकि, महिलाओं के लिए विवाह के पश्चात् घर से बाहर निकलना तक नामुमकिन था

उन्होंने फिल्म जैसे कार्यक्षेत्र को चुनकर उसमें अपना ऐसा मुकाम बनाया कि आज भी कोई उन्हें भूल नहीं सकता चाहे फिर वो उन्हें ‘मुगल-ए-आज़म’ की ‘जोधाबाई’ के रूप में याद रखे या फिर ‘बॉबी’ की ‘मिसेज़ ब्रैगैन्ज़ा’, ‘साहेब बहादुर’, ‘सागर’, ‘झुक गया आसमान’ फिल्म की दादी के रूप में या फिर नायिका के रूप में उनकी मोहक ममतामयी मुस्कान और प्रेम से छलकती आँखों को भूला पाना असंभव है

उन्होंने सिर्फ अभिनय ही नहीं किया बल्कि, पहली महिला निर्देशिका होने का गौरव भी हासिल किया और उस जमाने में जबकि, फ़िल्मी कलाकार किसी कंपनी से जुडकर उसके कर्मचारी के रूप में मेहनताना पाते हुये काम करते थे उन्होंने अनुबंध में बंधकर काम करने की जगह खुद को फ्रीलांस कलाकार के रूप में स्थापित किया और अपनी आत्मकथा ‘मी दुर्गा खोटे’ के द्वारा अपनी संघर्ष यात्रा की रोमांचक कहानी भी अपने चाहने वालों के साथ सांझा की जो उनकी बहुमुखी प्रतिभा और उनके भीतर की अद्भुत कार्य कुशलता व प्रबंधन क्षमता को दर्शाती है

उनकी अदाकारी को सराहते हुये भारत सरकार ने उनको पद्मश्री एवं दादा साहब फाल्के पुरस्कार से भी सम्मानित किया आज उनकी पुण्यतिथि पर उनके उन सभी किरदारों के स्मरण द्वारा उनको ये आदरांजलि... ☺ ☺ ☺ !!!

_____________________________________________________
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)
२२ सितंबर २०१८

कोई टिप्पणी नहीं: