बुधवार, 12 सितंबर 2018

सुर-२०१८-२५३ : #फेमिना_बनने_का_शॉर्टकट #तीज_त्यौहारों_का_करो_ बॉइकॅट




जैसा कि एक रिवाज चल पड़ा है पिछले कई सालों से हालांकि ये नया नहीं पर, अब तक उड़ते-उडते या कभी कहीं से ही कुछ सुनने को मिलता वो भी किसी शोभा डे टाइप की महिलाओं के मुंह से तो हम सोचते पता नहीं ये कौन लोग है और कहां रहते है पर,  सोशल मीडिया बोले तो आभासी दुनिया में इसका जिस तरह खुलकर प्रचार-प्रसार हुआ वो गौर-तलब है

क्योंकि, यहां तो ये मान लिया गया कि जो भी महिला अपने आपको प्रोग्रेसिव और फेमिना बताना चाहती उसे कुछ ज्यादा नहीं करना केवल जब भी कोई हिंदू त्यौहार या उत्सव आये तो उसके खिलाफ जोरदार लिखना है ऐसा कि पढ़ने वाला तिलमिला जाए और उसकी धार्मिक आस्थाओं, उसके ईश्वर का जमकर मजाक उड़ाना है

ये सब इस तरह करना है कि अगला यदि कमजोर हो या हीन भावना से ग्रस्त तो तुरंत अपने आपको ‘बुद्धिजीवी’ कहलाने या आपकी सोहबत में रहने आपके पाले में शिफ्ट होने का निर्णय ले ले जिसे अपनी जीत मानकर आपका अहंकार इतना बढ़ जाये कि अगली दफा आप इससे भी घातक शब्द से प्रहार करें

इस तरह जो सिलसिला शुरू होता तो फिर आपका कारोबार बढ़ता ही जाता क्योंकि, हमारे यहां तो हर दिन ही कोई न कोई त्यौहार जिनको विधिवत मानने की जिम्मेदारी औरतों की ही होती तो वे जो अब इस जिम्मेदारी को उठाना नहीं चाहती या जिनको मनमाना जीना वे अपनी आत्मग्लानि को कम करने इस तरह के हथकंडे अपनाती है

जिसमें एक तरफ से देखने पर लगता कि ये कितनी एडवांस या आधुनिक जो अपना जीवन अपनी मर्जी से जी रही जो चाहे वो कर रही इन पर किसी की न बंदिश और न ही ये किसी रीति-रिवाज को मानती एकदम स्वछंद जीवन जीती ऐसे में जो बेचारी थोड़ी-सी भी इस मामले या फेक फेमिनिज्म से अनभिज्ञ होती वो इनके जाल में फंस जाती पर, बाद में जिसका खमियाज़ा भी भुगतती क्योंकि न तो वो इनकी तरह घर-बार काम-काज छोड़कर मॉडर्न बन पाती और न ही उस आदर्शवादी खांचे में ही फिट  बैठ पाती जिसे खुद ही तोड़-मरोड़कर नया आकार देने का प्रयास किया था जिसके चक्कर में नमूना बन गयी ।

इसका दूसरा पहलू या पक्ष जो अनदेखा रह जाता वो ये कि भले ये महिलाएं इस प्लेटफार्म खुद को कितना भी मजबूत या आत्मनिर्भर दर्शाये दरअसल घर के भीतर इनकी पोजीशन भी कोई खास अलग नहीं होती केवल इतना ही कि ये खाने -पहनने जैसे साधारण निर्णय तो खुद ले लेती लेकिन, जहां बात किसी ठोस या बड़े डिसीजन या बच्चे पालने, खाना बनाने, घर संभालने जैसी जिम्मेदारियों या फिर अकेले कहीं जाने या अपने दम पर कुछ करने की होती ये भी खुद को आश्रित महसूस करती

भले ही ये उसका दिखावा नहीं करती और जो भी मजबूरीवश करती उस पर अपनी पसंद का टैग लगाकर नकली मुस्कान ओढ़ लेती और फिर इस कड़वाहट को किसी पोस्ट पर इसी तरह उगल देती जैसे कि आज हरतालिका तीज जैसे पवित्र, कठोर, धैर्य-संयम के परिचायक व्रत के साथ कर रही हैं कोई इसे अमानवीय प्रताड़ना तो कोई स्त्रियों पर अत्याचार तो कोई सामाजिक दबाब और कोई तो इसे पुरुषसत्ता की चालाकी बताने में लगी हैं

वे खुद तो एक पल भूखी-प्यासी न रह सकती पर अपनी इस कुंठा को न्यायसंगत ठहराने के लिए ‘पितृसत्ता’ नामक पंच बैग पर अपना गुबार निकालकर इस तरह बात को पेश करती कि जिसने भी उनकी बात का समर्थन न किया वो एक बेबस अबला कहलाएंगी जो मात्र अपने पति की परछाई और उसका कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं

जबकि,  हकीकत ये कि ये खुद पति के बिना अधूरी और जैसे ही एक रिश्ते से छूटती दूसरा पकड़ लेती क्योंकि, पुरुष के सहारे के बिना खुद को असहाय पाती चूंकि ये उनकी तरह एक ही रिश्ते में बंधकर नहीं रहना चाहती तो अपने मन की लालसाओं का आरोप अपने ऊपर न लेकर ‘पितृसत्ता’ पर डाल देती जिससे ये साफ-साफ़ बरी हो जाती ।

ऐसी स्थिति में ये देखकर बेहद ख़ुशी होती कि वे पारंपरिक नारियां जो भारतीय संस्कृति की वाहक वे इस नकली दुनिया में नहीं है इसलिये इन तथाकथित स्त्रीवादियों के चोंचलों से बचकर बिना किसी कुंठा या तनाव के हर एक पर्व, हर एक रीति-रिवाज को पूर्ण उत्साह से मना रही हैं जिनकी ख़ुशी देखकर ये इस कदर भयभीत हो जाती कि कुछ भी अनाप-शनाप बकने लगती हैं

कृत्रिम वातावरण में रहते-रहते और पितृसत्ता के बहाने पुरुषों को कोसते-कोसते ये इतनी आत्ममुग्धा हो चुकी हैं कि देख ही नहीं पा रही कि ‘फेमिनिज्म’ को वास्तविक मायनों में तो यही जी रही जो अपनी सुविधा व अपनी सहूलियत के हिसाब से इन पर्वों व हर उस नियम में परिवर्तन कर रही जो वर्मन परिस्थिति में उनको अनुकूल नहीं लगता और कम से कम कष्ट सहते और अपनी पहचान को बरकरार रखते हुये इन सब रवायतों का पालन कर रही हैं

जो भी ‘हिंदू धर्म’ को नहीं जानते वो इसी तरह उसके हर उत्सव या हर रिवाज़ पर ऊँगली उठाते जबकि, इतना उदार और लचीला कोई दूसरा मजहब नहीं जो समय के अनुसार ढल जाता तभी तो इतने अत्याचारों के बाद भी बचा हुआ और जब कुछ भी न रहेगा तब भी शान से खड़ा रहेगा कि उसे ‘डार्विन’ का जीवन जीने का सिद्धांत भी पता तो वो जिस तरह का माहौल होता उसी तरह से शिथिलता अपना लेता अड़कर खड़ा नहीं रहता न ही कट्टरपन अपनाता सबको साथ लेकर चलने में ही विश्वास रखता

इसलिये तो व्रतराज तीज जिसे सबसे अधिक कठिन व्रत माना जाता क्योंकि, इसमें पूरे चौबीस घंटे निर्जल, निराहार रखकर व्रत-साधना व रात्रि जागरण किया जाता उसमें भी स्त्रियों ने अपने अनुसार नये नियम बना लिये या जैसा उन्हें ठीक लगता वो कर लेती क्योंकि, वे जानती हैं कि श्रीमदभगवतगीता जो स्वयं भगवान् के श्रीमुख से निकली में स्पष्ट लिखा हैं कि आत्मा को कष्ट देकर कोई भी उपासना या व्रत नहीं किया जाता तो कमजोरी लगने या जरूरत पड़ने पर जल, दूध, चाय, जूस, फल, ड्राई फ्रूट्स आदि जो चाहती खा लेती है

ये जानते हुये भी कि व्रता कथा के अनुसार वे सज़ा भी भुगत सकती पर, उन्हें उस धर्मिक किताब की लिखी बातों का अक्षरशः पालन करने का मन नहीं करता तो वे अपनी बुद्धि से उसमें भी कोई न कोई तर्क ढूंढ ही लेती जैसे कि इसमें तो चाय या जूस या मेवों के बारे में तो कुछ न लिखा तो इनका सेवन किया जा सकता और इस तरह हंसते-मुस्कुराते कब सुंह हो जाती पता न चलता मगर, जो इनकी ख़ुशी देखकर इर्ष्या से जलती उनका क्या कीजे जहर उगलती रहती

इस ‘छद्म नारीवाद’ ने स्त्रियों का फायदा तो कुछ नहीं किया पर, नुकसान अवश्य किया क्योंकि, जो ये सब करना भी चाहती तो मन-मसोस कर रह जाती कि कहीं कोई उन्हें शुद्ध भारतीय नारी न समझ ले जबकि, जिन्हें इसके असल माने पता तो सारा श्रृंगार भी करती, पूजा में भी विधि-विधान का ध्यान रखती और अपने अधिकारों सहित ‘फेमिनिज्म’ को भी जीती न कि ढोती उन सो काल्ड फेमिना की तरह... तो उन सभी रियल फेमिनाओं को हरतालिका तीज की हार्दिक बधाई... ☺ ☺ ☺ !!!

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© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)
१२ सितंबर २०१८

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