शुक्रवार, 29 मार्च 2019

सुर-२०१९-८८ : #कवि_भवानीप्रसाद_मिश्र #याद_करे_आपको_हिंदी_साहित्य




जिस तरह हम बोलते हैं, उस तरह तू लिख,
और इसके बाद भी हमसे बड़ा तू दिख...

नरसिंहपुर धरा का ये सौभाग्य कि हिंदी साहित्य के मूर्धन्य साहित्यकार ‘भवानीप्रसाद मिश्र’ का इससे जुड़ाव रहा और उनकी कलम ने इस आंचलिकता को भी अपनी कलम के माध्यम से काव्य रूप में उकेर इस माटी का कर्ज भी चुकाया और यही एक संवेदनशील कवि का साहित्य धर्म भी होता कि वो चाहे खिन भी जाये या कुछ भी लिखे लेकिन, अपनी जड़ों से कभी विलग न हो उसकी शिराओं में बहता लहू उसे हमेशा ये स्मरण कराता रहे कि आज वो जिन ऊंचाइयों को छू रहा और प्रसिद्धि के जिस शिखर पर विराजमान उसकी आधारशिला तो वहीँ है जहाँ से उसने पहला कदम उठाया था तो होशंगाबाद के टिगरिया गांव में आज के दिन 29 मार्च 1913 को जन्मे ‘भवानी प्रसाद मिश्र’ की  प्रारंभिक शिक्षा क्रमश: सोहागपुर, होशंगाबाद, नरसिंहपुर और जबलपुर में हुई तो इस तरह उनका एक सिरा इस जमीन से भी जुड़ा इसे यूँ भी कह सकते है कि जड़ें भले जन्मस्थान से निकली मगर, उसकी शाखायें सभी जगह फैली और अपनी खुशबू से हर अंचल को महकाया ये उनकी अभूतपूर्व प्रतिभा का ही चमत्कार था जो ‘अज्ञेय जी’ ने उन्हें दूसरे ‘तार सप्तक’ में स्थान दिया

अपने प्रति सख्त बनो
जिससे नरम बन सको
दूसरों के प्रति
अच्छी है अति यहीं
और कहीं नहीं

चूँकि वे जमीन से जुड़े हुये रचनाकार थे तो उनकी कविताओं में भी सोंधेपन का वो खुबसूरत अहसास समाया हुआ था जिसने उनको कवियों का कवि बना दिया और उनकी सहजता-सरलता व सादगीपूर्ण व्यक्तित्व ने उन्हें सबका चहेता भी बना दिया उनकी कविताओं में हर बिम्ब उसी तरह से प्रस्तुत होता जैसे प्रकृति में हमें हर एक शय दिखाई देती है पर, उसे शब्दों में ढालना सबके बस की बात नहीं होती लेकिन, एक कलमकार अपनी दृष्टि से उसे नये अर्थ दे देता है तो इसी तरह उन्होंने अपनी मशहूर रचना सतपुड़ा के घने जंगल में जिस तरह से जंगल को मानवीय रूप में प्रस्तुत किया वो अपने आप में अद्वितीय है जिसको पढ़कर वो जंगल उंघते अनमने से नजरों के सामने दिखाई देने लगता इस तरह से कोई विरला कवि ही अपनी कविताओं में कुदरत का ऐसा साकार रूप दर्शा पाता है जो साक्ष्य भाव से उसे देखता व दार्शनिक दृष्टिकोण से उनको मानी देता है              

सतपुड़ा के घने जंगल
नींद मे डूबे हुए से
ऊँघते अनमने जंगल
झाड ऊँचे और नीचे,
चुप खड़े हैं आँख मीचे,
घास चुप है, कास चुप है
मूक शाल, पलाश चुप है।
बन सके तो धँसो इनमें,
धँस न पाती हवा जिनमें,
सतपुड़ा के घने जंगल
ऊँघते अनमने जंगल

ये तो महज़ एक बानगी ऐसे अनगिनत उदाहरणों से उनका रचा साहित्य संसार भरा पड़ा है जिसका मुल्यांकन केवल उनको मिले सम्मान या पद्म पुरस्कार से नहीं किया जा सकता वो तो कहीं भी होते अपनी असाधारण काबिलियत से इसी तरह अपना स्थान बनाते ये तो हमारा भी सौभाग्य कि हमें उनका लिखा पढ़ने-गुनने मिला जिसने हमें भी प्रेरणा दी कि हम भी शब्दों से कमाल कर सकते है और वो क्यों लिखते थे इसकी वजह तो वे खुद ही बताकर गये है...

मैं कोई पचास-पचास बरसों से
कविताएँ लिखता आ रहा हूँ
अब कोई पूछे मुझसे
कि क्या मिलता है तुम्हें ऐसा
कविताएँ लिखने से

जैसे अभी दो मिनट पहले
जब मैं कविता लिखने नहीं बैठा था
तब काग़ज़ काग़ज़ था
मैं मैं था
और कलम कलम
मगर जब लिखने बैठा
तो तीन नहीं रहे हम
एक हो गए  

सबको नहीं हासिल ये कला वो तो जिन्हें ईश्वर चुनता है किसी ख़ास काम के लिये तो उसके लिये कुछ भी कर पाना असम्भव नहीं होता बल्कि, स्वयं कायनात ही उसका साथ देती है तो उन पर भी उसकी कृपा बनी रही और आज उनकी जयंती पर हम उनको याद कर रहे कि काश, वे इसी तरह लिखते रहते तो हम उन्हें थोड़ा अधिक पढ़ पाते है न...!!!

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© ® सुश्री इंदु सिंह ‘इन्दुश्री’
नरसिंहपुर (म.प्र.)
मार्च २९, २०१९

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