गुरुवार, 7 मार्च 2019

सुर-२०१९-६६ : #अधूरी_लैंगिक_समानता #अधूरी_समान_वेतन_की_कामना




अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस की पूर्व संध्या पर...

५ फरवरी को १२ बजकर १५ मिनट पर महिन्द्रा ग्रुप के चेयरमैन बिजनेस टायकून ‘आनंद महिंद्रा’ ने अपने ट्विटर हैंडल से एक इमेज शेयर करते हुये लिखा, “मैं अपनी एक साल की पोती को बेबी सिट करने में मदद कर रहा हूं और इसके बाद मुझे इस फ़ोटो की असलियत का पता चला मैं सभी वर्किंग विमेन को सलाम करता हूं और स्वीकार भी करता हूं कि उनकी सफलताओं को अपने पुरुष समकक्षों की तुलना में बहुत अधिक मात्रा में प्रयास की आवश्यकता है” ।

इसने वर्किंग विमेन की बहुआयामी भूमिकाओं के मुद्दे को एक बार फिर से एक नये नजरिये से देखने की जरूरत को शिद्दत से महसूस किया...

यूँ तो हम सभी जानते कि जब से महिलाओं ने आत्मनिर्भरता की चाह में घर की चारदीवारी को लांघा उसकी जिम्मेदारियां कम होने की जगह उनमें इजाफ़ा ही हुआ बल्कि, मैं तो कहूँगी कि जहाँ उसे पहले कहीं फुर्सत या आराम के दो पल मिल जाते थे अब वो भी कहीं खो गये क्योंकि, सुबह उठने से लेकर रात को सोने तक वो घड़ी की सुई से कदमताल करती ही नजर आती फिर भी कुछ न कुछ छूट जाता और बिस्तर पर जाकर भी वो चिंतामुक्त नहीं हो पाती कि अगले दिन के कामों का बोझ सर पर लदा महसूस होता जो बेफिक्र होकर सोने भी नहीं देता उसके बावजूद भी वो अलार्म बजने से पहले जाग जाती और सारे काम निपटाकर अपने कार्यस्थल पर पहुंच जाती है

कार्यस्थल पर उसकी एक अलग भूमिका की शुरुआत होती जिसे करते-करते भी उसके जेहन में कहीं न कहीं अपने घर को लेकर कोई न कोई प्लानिंग चलती रहती याने कि घर हो या बाहर या कोई भी स्थान वो शारीरिक ही नहीं मानसिक रूप से भी कार्यरत रहती जिसका अंत कभी-भी नहीं होता क्योंकि, उसकी जॉब केवल ऑफिस में नहीं उसकी फैमिली में भी होती जहाँ पर कभी रिटायरमेंट नहीं होता तो इस तरह उसके व्यक्तित्व के अनगिनत पहलू नजर आते जिनमें वो उतनी ही भूमिकाओं का उतनी ही समझदारी के साथ निर्वहन करती जिसमें उसे तारीफ़ के दो शब्द भी बमुश्किल ही हासिल होते मगर, उसके भीतर ही ऊर्जा का ऐसा झरना और सकारात्मकता की ऐसी नदी बहती जो उसे हजार निराशाओं व नाकामी के बाद भी हारने नहीं देती है

इस तरह की लाइफ में एक स्त्री को बेहद मशक्कत करनी पड़ती लेकिन, उसकी परवरिश बोले तो मेंटल कंडीशनिंग ऐसी होती कि वो उन सब हालातों को हंसकर स्वीकार कर लेती इसलिये घरेलु कामकाज हो या ऑफिसियल वो सबमें अपना शत-प्रतिशत देने का भरसक प्रयास करती जिसे अब सभी लोग समझ रहे कि यदि वो बाहर निकलकर काम कर सकती तो फिर पुरुष घर के भीतर उसका हाथ क्यों नहीं बंटा सकता क्योंकि, अगर हम उन दोनों के कामों की तुलना करें तो पाते है कि कामकाजी महिलाएं पुरुषों की अपेक्षा कहीं ज़्यादा मेहनत करती हैं और कामकाजी महिलाओं की जिन्दगी पुरुषों के मुकाबले कहीं ज्यादा कठिन होती है क्योंकि वह दफ्तर के काम के साथ-साथ घर भी संभालती है

यदि हम इस मसले पर प्रोग्रेसिव समाज की मानसिकता को समझने का प्रयास करे तो पाते है कि नौकरी करने के बाद भी आज तक महिलाएं, पुरुषों के बराबर नहीं पहुंच सकी एक तरह से देखें तो पद व काम में तो उन्होंने उस मुकाम को पा लिया उस ऊँचाई को छू लिया है बावजूद इसके अभी भी समान वेतन के मामले में उसे वो हक हासिल नहीं हुआ है जो संविधान की लैंगिक समानता के अधिकार भी प्रश्नचिन्ह खड़ा करता है । दूसरे देशों की तुलना में भी देखें तो भारत बहुत पीछे है अभी क्योंकि, यहाँ तो उसके घर के कामों को एकमात्र उसका ही कार्यक्षेत्र माना जाता जिसके ऐवज में उसे कोई मानदेय भी प्रदान नहीं किया जाता यहाँ तक कि उसकी कमाई पर भी उसका हक नहीं होता उसे तो अपने व्यक्तिगत खर्चों के लिये भी निर्भर ही रहना पड़ता मतलब, आत्मनिर्भरता महज़ दिखावे के दांत की तरह वो तो अपनी साँस भी अपनी मर्जी से नहीं ले सकती है ।

उसकी वास्तविक स्थिति को इस चित्र में यथार्थ तरीके से दिखाया गया है कि वो कितनी बाधाओं को पार कर के अपनी मजिल तक पहुंचती जबकि, पुरुष की राह एकदम सहज-सरल फिर भी उसकी उपलब्धियों का जिस तरह से गुणगान किया जाता वैसा प्रतिसाद स्त्री को नहीं मिलता जो कि अपने रास्ते की तमाम मुश्किलों से गुजरकर उसे हासिल करती है  

#Fake_Gender_Equality

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© ® सुश्री इंदु सिंह ‘इन्दुश्री’
नरसिंहपुर (म.प्र.)
मार्च ०७, २०१९

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