शुक्रवार, 12 अप्रैल 2019

सुर-२०१९-१०२ : #भक्त_गुलाम_और_मतदाता




पहला - चल हट ‘भक्त’ कही का मैं तुम जैसों से बात नहीं करता ।

दूसरा - मैं ‘भक्त’ हूँ तो तुम क्या हो ‘गुलाम’ ?

पहला - अपनी झेंप छिपाने दूसरे को ‘गुलाम’ कहना अच्छा है वैसे भी भक्तों को समझाना मुश्किल है उस पर, अंध भक्त तौबा-तौबा...

दूसरा - मैं तो सिर्फ ‘भक्त’ हूँ जिसकी आस्था अपने देश, अपने राष्ट्र के प्रति है तो जो उसके विकास, सुरक्षा और उन्नति की बात करे उसका साथ दूंगा मगर, तुम तो गुलाम हो जिसे ज़िन्दगी भर अपने मालिक की जी-हुजूरी करनी पड़ेगी चाहे वो नकारा या अयोग्य ही क्यों न हो तुममें इतनी हिम्मत कहाँ जो उसका विरोध कर सको सच को झूठ, सही को गलत, उजाले को अँधेरा कहना तुम्हारी नियति है ।

पहला - भक्तों को समझाना मुश्किल अपनी शर्म छिपाने दूसरों को गरियाता है ।

दूसरा - कौन किसको गरिया रहा ये तभी समझ आ गया जब तुमने घृणापूर्वक ‘भक्त’ कहा जबकि, ‘गुलाम’ होना अधिक खतरनाक है ।

पहला - वो तो तुम कहोगे ही जो अपने भगवान की गलतियों को छिपाने रोज नये-नये झूठ गढ़ते हो ।

दूसरा - ये तो वही बात हुई उल्टा चोर कोतवाल को आंख दिखाये क्या करें भई, गुलामों की सोच उतनी ही होती जितना मालिक उनको सोचने की इजाजत देता है ।

पहला - खुश रहने को ख्याल अच्छा है जैसे भक्त तो खुद निर्णय लेते ।

दूसरा - फिर भी गुलामों से तो अच्छे है उन्हें तो अपना मालिक चुनने तक की इजाजत नहीं ।

पहला - यदि मालिक अच्छा हो तो उसे बदलने की जरूरत ही क्या है ।

दूसरा - बिल्कुल, आका अपने ‘गुलाम’ को ऐसी ही ट्रेनिंग देता है ।

पहला - भक्तों से उलझना मतलब, समय बर्बाद करना वो कभी अपनी गलती स्वीकार नहीं करेंगे ।

दूसरा – ‘भक्त’ होना ‘गुलाम’ होने से बहुत अच्छा है ।

पहला - क्या, ‘गुलाम-गुलाम’ लगा रखा है तेरी औकात नहीं बात करने की और तू है कि लगातार मुझे ‘गुलाम’ कहा रहा तेरे जैसा नहीं हूं मैं

दूसरा - पता है मेरे जैसा नहीं है तू तो ‘गुलाम’ है ।

पहला - फिर ‘गुलाम’ कहा अब चुप हो जा वरना...

दूसरा - वरना, क्या ? क्या ये सच नहीं कि तुम केवल, एक परिवार के सेवक तुम्हारे परिवार में भी सब उनको ही मानते चाहे वो योग्य हो या नहीं और तुम्हारे पापा तो अपने से छोटे मालिक के पैर तक पडते ये गुलामी नहीं तो क्या है?

तभी ‘तीसरा’ आता है वहां पर तो पहला उससे बोलता है - अच्छा हुआ तू आ गया मैं फिजूल एक ‘भक्त’ से मुंह लड़ा रहा था चल अपन चुनावी रैली में चलते है ।

दूसरा - ऐ, वो तेरा नहीं मेरा दोस्त है अब उसे अपनी तरह ‘गुलाम’ मत बना ।

पहला - तू अब अपनी जुबान बंद कर ले वो मेरी तरह ‘स्वामीभक्त’ है ।

दूसरा - किसी गलतफहमी में मत रहना वो मेरी तरह ‘देशभक्त’ है ।

तीसरा - देखो, तुम दोनों मेरे कारण झगड़ा मत करो मैं तुम दोनों का दोस्त हूँ ।

पहला - हट चमचे तेरे जैसे को मैं दोस्त नहीं बनाता जो भक्तों से दोस्ती करता है ।

दूसरा - मुझे भी अपना दोस्त मत कहना आज से अपनी दोस्ती खत्म गुलामों से हम कोई वास्ता नहीं रखते है ।

तीसरा – (मन ही मन सोचते हुए...) मैं किसी का ‘चमचा’ नहीं बल्कि, एक आम आदमी, एक ‘वोटर’ हूँ जो कभी किसी एक का नहीं होता उसे तो सबसे मिलकर रहना पड़ता और जो उसके बारे में सोचता वो उसे ही अपना अमूल्य वोट देता है । वही तय करता कि सरकार किसकी बनेगी उसके लिए सब एक बराबर है इसलिए वो सबकी सुनता फिर अपने हिसाब से उन बातों का आंकलन करके ही कोई निर्णय लेता और ये सब उसे ही नजरअंदाज करते है ।

कौन भक्त, कौन गुलाम ???

एक पार्टी विशेष के समर्थकों को विरोधी पार्टियां व उनके समर्थक 'भक्त' कहते है तो इस तरह विरोधी पार्टियों व विचारधारा के समर्थकों को तार्किक रूप से 'गुलाम' कहना अनुचित न होगा... क्योंकि, तथाकथित ‘भक्त’ गलत होने पर आलोचना करना व सत्ता से हटाना भी जानते है.. पर 'गुलाम' उफ़, बेचारे हर गलत बातपर चाहे वो देश या समाजहित में न हो तो भी उनका साथ बेशर्मी से देते पाये जाते है और इन दोनों पाटों के बीच मतदाता पीसता रहता है

_____________________________________________________
© ® सुश्री इंदु सिंह ‘इन्दुश्री’
नरसिंहपुर (म.प्र.)
अप्रैल १२, २०१९

कोई टिप्पणी नहीं: