मंगलवार, 30 अप्रैल 2019

सुर-२०१९-१२० : #तिरंगे_का_रंग_हरा #बहादुर_हरि_सिंह_नलवा




1967 में भारत कुमार के नाम से प्रसिद्ध अभिनेता व निर्देशक ‘मनोज कुमार’ की एक फिल्म आई थी ‘उपकार’ जिसका एक गीत ‘मेरे देश की धरती, सोना उगले, उगले हीरे-मोती...” बेहद मशहूर हुआ और आज भी देशभक्ति के गीतों में इसका अपना स्थान है इस गाने की अंतिम पंक्तियों में कई जाने-माने देशभक्तों के नाम के बीच एक नाम आता है ‘रंग हरा, हरिसिंह नलवे से...” जिसे हम दूसरे नामों की तुलना में कम जानते है तब इसे सुनकर ये जानने की इच्छा होती कि ये आखिर, कौन है ?

जब इतिहास में इनकी वीरगाथा पढ़ी और इन्हें जाना तब अहसास हुआ कि यही वो लोग जिनकी वजह से देश की सांस्कृतिक विरासत व एकता-अखंडता कायम रह सकी और जिन्होंने मुग़ल हो या ब्रिटिश काल हर युग में हिंदुस्तान की आत्मा ‘हिन्दू धर्म’ को बचाने अपना सर्वस्व गंवाने में भी संकोच नहीं किया इसलिये इनका नाम देश की हवाओं और माटी में इस तरह से रच-बस गया कि तिरंगे के हरे रंग का पर्याय बन गया और ये हमारी ही नासमझी या स्वार्थान्धता कहलायेगी कि हम इनके बलिदान और उस शौर्य को विस्मृत कर दे जिनकी वजह से ही हम आज भी अपनी वास्तविक पहचान को सहेजे हुये है

भारत के प्रवेश द्वार के रूप में स्थापित ‘ख़ैबर दर्रा’ माना जाता है कि ये वही स्थान जहाँ से विश्व विजेता बनने का सपना लिये ‘सिकन्दर’ ही नहीं यूनानी, हूण, शक, अरब, तुर्क, पठान और मुगल सभी ने सोने की चिड़िया ‘भारत’ की हरी-भरी वसुंधरा पर कदम रखा था । पंजाब के ‘महाराजा रणजीत सिंह’ के सेनानायक जाबांज यौद्धा ‘सरदार हरिसिंह नलवा’ ने अफगानिस्तान तक अपनी विजय पताका लहराकर राज्य का विस्तार किया और अफगानियों को ‘खैबर दर्रे’ से परे खदेड़कर उस मार्ग पर भी अधिकार जमाया जिससे होकर दुश्मन देश में आकर उस पर कब्जा जमाना चाहते थे ।      

उन्होंने अपने अद्भुत पराक्रम व कुशल रणनीति से सिख साम्राज्य की सीमाओं को बढ़ाने ‘कश्मीर’ और ‘काबुल’ को जीत वहां हिन्दू धर्म की रक्षा की तो साथ-ही-साथ अफगानिस्तान पहुंचकर वहां हिन्दुओं पर लगे जजिया कर को हटवाकर हिन्दुओं को गर्व से सर ऊंचा करके जीने का उनका जन्मसिद्ध अधिकार दिलावाया जो आज पुनः खतरे में है क्योंकि, कश्मीर से न केवल पंडितों को निकाला गया बल्कि, उसे भारत से अलग करने की साजिशें भी रची जा रही है ऐसे में ‘सरदार हरिसिंग नलवा’ तो वापस आकर पुनः स्वाभिमान से जीने का हक़ नहीं दिला सकते क्योंकि, अपनी लापरवाही से हमने ही उसे गंवा दिया है

ऐसे में उनके साहस, वीरता और बहादुरी को फिर से स्मरण करने की जरूरत जो शेर जैसे खतरनाक जीव को आसानी से मार देने के कारण ‘नलवा’ कहलाये क्योंकि, उससे पहले ‘राजा नल’ के इस तरह के किस्से विख्यात थे तो उनके द्वारा इस कारनामे को अंजाम दिये जाने पर ‘’महाराजा रणजीत सिंह’ ने उन्हें यह उपनाम प्रदान किया था । आज हम अपने इन सपूतों की जीवनी पढ़ने की जगह मोबाइल की आभासी दुनिया में भटक रहे और जिस तरह अपने इतिहास को ही बदलने में लगे निश्चित कि आने वाले समय में अगली पीढ़ी को इन महापुरुषों की जानकारी नहीं होगी जिसके कसूरवार हम ही होंगे जो उस तरह के हालात दुबारा बनने की अटकलों के बीच भी नहीं जाग रहे है ।

जब हम ही इनको याद करने की जहमत नहीं उठा रहे तब उस जनरेशन से जिसे ‘देशभक्ति’ या ‘राष्ट्रवाद’ काल के गाल में समाये शब्द लगते ये उम्मीद करना गलत ही होगा इसलिये जितनी जल्दी हम ये समझे उतना ही बेहतर कि अभी उम्मीदों की शाम ढली नहीं है । जिस दिन कयामत की रात आई इतनी देर हो चुकी होगी कि जिसे बचाने हमारे अनगिनत देशभक्तों ने अपने प्राण गंवा दिये वो खुबसूरत लोकतांत्रिक आज़ादी फिर गुलामी में तब्दील हो जायेगी इसलिये जब किसी हुतात्मा का स्मरण दिवस आये तो हम पूरे दिन में से बिल्कुल थोड़ा-सा समय ये सोचने में जरुर बिताये कि यदि वे न होते तो क्या होता ??? तब शायद, हम समझ पाये कि उन्होंने हमारे लिये क्या किया है ।

‘सरदार हरि सिंह नलवा’ जब तक जिये पूर्ण समपर्ण एवं लगन से देश की रक्षा में संलग्न रहे और लड़ते हुये ही वीरगति को प्राप्त हुये आज उनके ‘बलिदान दिवस’ पर उनकी बहादुरी व राष्ट्रभक्ति को सलाम करते है     

जय हिन्द... जय भारत... वंदे मातरम...
        
_____________________________________________________
© ® सुश्री इंदु सिंह ‘इन्दुश्री’
नरसिंहपुर (म.प्र.)
अप्रैल ३०, २०१९

कोई टिप्पणी नहीं: