शुक्रवार, 12 जून 2015

सुर-१६३ : "विश्व बालश्रम निषेध दिवस... किस तरह हो सकता सार्थक...???"

'बाल-श्रम'
गैर कानूनी
जानते सब हैं
पर, मानते कब हैं ?

बने कानून
नीतियाँ भी अनेक
पर, न रोक सके
बालपन को बनने से
श्रमिक, बीनने से कचरा
कि जब पेट भरना ही हो
प्रथम आवश्यकता तो
फिर क्या करेगा कोई कानून ??

माना जरूरी हैं
मासूम बच्चों के लिये
पढ़ना-लिखन, खेलना-कूदना  
पर, जब न हो घर में
खाने को दाना
खेलने को खिलौने
पढ़ने को कलम-किताब
और न ही हो
उन्हें खरीदने को पैसा तो
कैसे न हो मजबूर
नन्हे बच्चे बनने को मजदूर ???
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मित्रों...,

फिर से एक बार १२ जून की तारीख आई और उसके साथ ही आ गया ‘विश्व बालश्रम निषेध दिवस’ जिसे मनाते हुये बीत गये कई बरस पर, ये दिवस भी अन्य दिनों की तरह महज रस्म अदायगी बनकर रह गया कानून की बड़ी-बड़ी किताबों में लिख कर रख दिये गये अनगिनत नियम-कानून जिन्हें न तो वे मासूम अबोध बालक-बालिकायें पढ़ सकते हैं न ही उनका उपयोग कर सकते हैं यहाँ तक कि वे तो जानते भी नहीं होंगे कि उनके स्वर्णिम भविष्य के लिये सरकार ने कुछ व्यवस्थायें की हैं माना उनको ये इल्म हो भी गया तो भी तस्वीर बदलने से रही क्योंकि जिस देश में ‘जनसंख्या’ और ‘गरीबी’ मूल समस्या हो वहां बच्चों की ‘पैदाइश’ नहीं बल्कि ‘परवरिश’ यक्ष प्रश्न होता जिसे हल करने उनके ही नाज़ुक हाथों में उनकी जिम्मेदारी सौंप दी जाती और कोई करें भी तो क्या ???

जब लोग बैठे-बैठे बातें अधिक लेकिन काम कम करते हो और नियम-कायदे केवल पोथियों का हिस्सा हो वहां व्यक्ति बड़ी ही जल्दी जीना सीख लेता हैं वैसे भी हमारे यहाँ ‘रोटी, कपड़ा और मकान’ को ही प्रथम आवश्यकता माना गया हैं ऐसे में आदम जात जन्म लेते ही उसके जुगाड़ में जुट जाता हैं यहाँ हम उनकी बात नहीं कर रहे जो सोने या चांदी का चमच्च लेकर इस दुनिया में आते हैं बल्कि उनकी बात कर रहे हैं जो बिना किसी मन्नत या दुआ के स्वतः ही इस धरती पर चले आते और आने के बाद ही जिंदगी की इस कठोर हकीकत का सामना करते जब टटोलने पर भी उनको अपनी माँ के स्तनों से दूध की एक बूंद भी बड़ी मुश्किल से नसीब होती और खेलने के लिये खिलोनों की बजाय मिलता भीख का कटोरा ऐसे में पढाई-लिखाई जैसी बातों की और न किसी का ध्यान जाता न ही उसकी जरूरत महसूस होती वैसे भी इसी देश में एक कटू सत्य ये भी हैं कि ‘भूखे पेट भजन न होय गोपाला’ तो फिर पढ़ने जैसा जेहनी मशक्कत का काम तो सोचना भी कठिन हैं

माना कि सरकार ने अब उनके लिये ‘शिक्षा का अधिकार’ लागू कर मुफ्त अध्ययन की भी व्यवस्था कर दी हैं पर, बात तो वहीँ आकर अटक जाती कि गरीब की सोच में तो ‘रोटी’ ही बसी हैं उसके लिये ‘कलम’ का कोई औचित्य नहीं रह जाता अतः वो अपने बच्चों को खुद ही कभी मजबूरी से तो कभी हालात की वजह से मजदूरी के काम में लगा देता । ऐसे में कब इस तरह के दिवस आकर चले जाते उनको खबर भी नहीं होती तो ऐसी स्थिति में मन में विचार आता कि सिर्फ़ कानून बनाना या उसको अमल में लाना ही काफी नहीं बल्कि उन वजहों को खोजना और उनका समाधान तलाशना भी अहम हैं जिसकी वजह से बचपन को कठोर श्रम करना पड़ता क्योंकि हम देख रहे हैं कि इतने सारे नियम-अधिनियम उसे रोकने पर्याप्त हैं फिर भी रोक तो नहीं पा रहे तो इसका मतलब कमी कहीं न कहीं उन जरूरतों में छिपी हुई हैं जिन्हें पूरा करने के स्थान पर हम क़ानूनी व्यस्था को तरजीह दे रहे जबकि दोषी तो वे लोग हैं जो किसी बच्चे की उस मजबूरी का फायदा उठा उनसे मजदूरी करा रहे हैं या वे लोग जो सब जानते-बुझते भी अपने काम के लिये उनका उपयोग कर रहे क्योंकि वे उनको कम भुगतान में उपलब्ध हैं ।

ऐसे में हमें अपनी जिम्मेदारी समझना हैं कि हम क्या कर सकते हैं ???

शायद... यही कर सकते कि अपने घरों में या आस-पास किसी भी स्थान पर किसी भी मासूम को काम न करने दे और यदि ऐसा देखें तो चुप न रहें और इसके अलावा अपनी समर्थ अनुसार जितनी भी हो सके उनकी सहायता करें चाहे फिर उनको पढ़ाना हो या उनकी फीस भरना या उनको किसी कला में पारंगत करना या उनके किसी हुनर को उभरना इससे बड़ी नेकी और कुछ भी नहीं हो सकती और इस तरह हम बाल-श्रम को रोकने में अपनी भूमिका का निर्वाह कर सकते हैं क्योंकि सरकार या व्यवस्था को दोष देना आसान हैं लेकिन खुद कुछ करना मुश्किल तो... हम भी सहज-सरल पथ न अपनाकर कठिन राह को ही चुने थोड़ी देर जरुर लगेगी लेकिन मज़िल मिलने की गारंटी हैं... 1000%... सच... :) :) :) !!!     
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१२ जून २०१५
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
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