गुरुवार, 18 जून 2015

सुर-१६९ : "जहाँ से आये वही वापस जाना... सोचो किस तरह मुंह दिखाना...!!!"


आपाधापी
इस जीवन की
लेने न देती चैन कहीं
फिर भी सब लोग
बेसबब अधाधुंध
यहाँ से वहाँ भाग रहे
लेकिन, जब आता
अंत समय तो देखते
कि कहीं भी तो नहीं पहुँचे
जहाँ थे वहीँ तो खड़े हैं
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मित्रों...,

अनंत काल तक शून्य में अंधकार के बीच भटकते रहे तब कहीं जाकर एक अणु से जीवन का प्रारंभ हुआ पर, आकर विशाल दुनिया में देखकर उसकी चमक-दमक चौंधिया गयी अखिंयाँ एक पल में ही और... भूल गये वो भटकन... करोड़ो योनियों की... जिसमें एक से दूसरी में जा-जाकर भूल-भुलैया की तरह कभी खोजते रहे मंजिल तो कभी ख़ुद ही खो गये लेकिन जब जन्मों की इस बेचैन आत्मा को किसी देह की शिनाख्त मिली तो फिर आ गया इतना अहं कि याद ही नहीं रहा कि जो भी दिखाई दे रहा हैं ये सब भी केवल भ्रम हैं और हम सिर्फ़ एक पात्र जिसे दुनिया के रंगमंच पर अपना किरदार निभाकर पुनः अपने उसी ठिकाने पर जाना हैं जहाँ से हमारी ये यात्रा शुरू हुई थी लेकिन जैसे एक नन्ही-सी बूंद महासागर में समाकर खो जाती हैं और उसका अस्तित्व उसमें घुलकर सागर ही बन जाता वैसे ही हम भी इस बड़ी सी दुनिया में आकर इंसानों के समुद्र में ऐसे विलीन होते कि अपना वज़ूद उसकी क्षणभंगुरता की हकीकत को न जाने कब विस्मृत कर देते याद तब आता जब हाथ में कुछ भी न बाकी रहता रेत की तरह दिया गया काल धीरे-धीरे फिसल जाता या बोले कि हम ही ये समझते कि समय बिताना ही जीवन का पर्याय हैं और हम तो यहाँ केवल उसे व्यतीत करने ही आये हैं   

वाकई... इस दुनिया में बहुत से लोग ऐसे हैं जिन्हें देखकर लगता कि इनके जीवन का कोई मकसद नहीं ये तो महज़ खाना-पीने और मौज उड़ाने को ही ‘लाइफ’ कहते हैं और जीवन का जो सबसे अमूल्य वक़्त होता उसे बेकार ही गंवाकर बाद में पछताते लेकिन इंसान तो वही जो अपनी गलतियों से सबक ले न कि उसे ही दोहराता रहे पर, सबमें कहाँ इतना सामर्थ्य कि वो आत्मचिंतन करें और अपने द्वारा किये गये सही-गलत का वास्तविक मूल्यांकन कर सके चूँकि ये न तो ‘सतयुग’ हैं... न ही ‘द्वापर युग’ बल्कि ये तो एक टांग पर खड़ा ‘कलयुग’ हैं जिसका आधार केवल ईश्वर का नाम जपना हैं पर, कितने हैं जो इस सत्य को जानते या मानते हैं उनके लिये तो दुनिया उनके नाक के आगे ही खत्म हो जाती दूसरा नज़र आये तो कुछ सोचे उसके बारे में... वो तो अपने मे ही खोये रहते हैं उनके पास तो  ध्यान-तप या भजन-सत्संग के लिये भी दो पल नहीं जिनसे कि आत्मा को भोजन मिलता उसकी भूख शांत होती और इंसान के सद्गुणों का विस्तार होता

आज तो चारों तरफ़ अशांति और हिंसा का माहौल हैं जिससे हम सबका प्रभावित होना भी लाज़िमी हैं और जब हमारे आस-पास भी ऐसे ही लोगों का हुजूम हो तो हमें ये समझ में आये भी किस तरह की हमारी समस्या क्या हैं ???

हम सबकी एक ही समस्या हैं कि हम सब अपनी-अपनी जिंदगी में सफ़ल होना चाहते हैं और चंद इसे प्राप्त कर भी लेते हैं फिर भी यदि उनसे पूछा जाये तो पता चलेगा कि सुकून उनको भी नहीं क्योंकि जो पाना था उसे तो पा लिया पर, उसके बाद भी मन को राहत का अहसास नहीं होता तो ऐसे में जिनके जीवन का न तो कोई ख़ास मकसद... न ही कोई लक्ष्य... वे भी तो यही महसूस करते तो फिर सार तो यही निकला कि आत्मा का जो सफ़र हम सबने अपनी-अपनी देह के साथ शुरू किया उसको उसके मुकाम तक तो पहुंचना ही हैं किसी को देर से तो किसी को जल्दी पर, जाना तो सबको एक दिन वहीँ हैं तो हमने उसके लिये क्या किया... अपनी आत्मिक ख़ुराक की तो कोई व्यवस्था नहीं की या ये मान लिया कि जब बुढ़ापा आयेगा तो उसे एक साथ सब खिला देंगे फिर भले ही उसका हाजमा खराब हो जाये... ऐसे में भी सवाल उठता कि हम ये कैसे मान सकते कि हम उम्र की सभी अवस्थाओं से गुजरेंगे ही... यदि ये तय हैं तो भी ये समझना कि उसके लिये वृद्धावस्था ही मुनासिब हैं ये हमारी कौन-सी सोच हैं... जब हम मुरझाया पुष्प भगवान के चरणों में नहीं चढ़ाते तो फिर खुद के मुरझा जाने पर किस तरह स्वयं को उनको समर्पित कर सकते... सोचकर देखें जरुर... अभी भी शायद... मुट्ठी में रेत के कुछ कण बाकी हो... हैं न... :) :) :) !!!       
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१८ जून २०१५
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
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