शनिवार, 27 जून 2015

सुर-१७८ : "लघुकथा : पेनकिलर...!!!"

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मित्रों...,



दीपांशीबिस्तर पर पड़ी तड़फ रही थी और पेट में हो रहे दर्द से बुरी तरह कराह रही थी यहाँ तक कि उस असहनीय पीड़ा से उसकी आँख से आंसू तक छलक पड़े थे पर, दवा के बावज़ूद भी आराम का नामों-निशां तक नहीं था ऐसे में तभी अचानक उसके मोबाइल की रिंग बजी तो चेहरे पर झुंझलाहट के भाव उभर आये कि न जाने किसका कॉल आ गया मन नहीं था किसी से भी बात करने का क्योंकि लगातार हो रहे दर्द ने उसको बेचैन कर रखा था इसलिये उसने कॉल रिसीव नहीं किया लेकिन एक बार पूरी रिंग बजकर बंद होने के बाद फिर से फोन बज उठा तो जेहन के किसी हिस्से ने कहा कि देख ले कोई जरूरी फोन न हो और उसने बड़े बेमन-से उसे उठाया तो स्क्रीन पर अपनी सर्वप्रिय सहेली शिखाका नाम नज़र आया और जैसे एकाएक ही कोई जादू हुआ दर्द तो छूमंतर हुआ ही साथ उसके चेहरे से गुम हो जाने वाली मुस्कान भी उभर आई और जब माँ 'पेनकिलरलेकर कमरे में आई तो उसे अपनी सखी से हंसते हुये बात करता देख मुस्कुराती हुई चुपचाप चली गयी कि अब इसकी कोई जरूरत नहीं रही । 
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२७ जून २०१५
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
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