मंगलवार, 30 जून 2015

सुर-१८१ : "तन समंदर... मन का जहाज... उसके अंदर...!!!"

उफ़,
कितनी
कठिन घड़ी हैं
किसी भी
एक फ़ैसले पर
पहुंच पाना
हमेशा मुश्किल रहा
आज फिर
इम्तिहान की
एक और कसौटी
जिंदगी भी यूँ लगता
कि जैसे ज़िद पर अड़ी हैं
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मित्रों...,

‘अवनि’ को लग रहा था कि यदि उसने कुछ देर और इसी विषय पर सोचा तो उसके दिमाग की नसें फटकर बाहर ही निकल आयेगी न जाने क्यूँ हमेशा ही उसने महसूस किया कि जीवन में जब-जब भी किसी एक निर्णय पर पहुँचने का मुश्किल वक़्त उसके सम्मुख आया हैं ये दौर उसके लिये हमेशा एक ‘संकट काल’ बनकर आया हैं और उसने खुद को किसी ‘चक्रव्यूह’ में फंसकर तडफता हुआ पाया हैं जिससे बाहर निकलने की उसकी कोशिशें ‘अभिमन्यु’ की ही तरह नाकाम रही और उसके जेहन की सोचने-समझने की शक्ति ने या तो अंतिम पलों में दम तोड़ दिया हैं या कमजोर पड़ गयी हैं जिसके कारण वो समय अज़ाब बनकर उसको लीलता रहा हैं उसके निर्णय लेने की अक्षमता ने हमेशा ही उसे हताश किया हैं पता नहीं क्यों लेकिन उसके लिये ‘डिसीजन मेकिंग’ सदा से ‘सरदर्द’ ही बनकर रहा जिसने उसके जेहन को तो हैरान-परेशान किया ही उसके मनोबल को भी तोड़कर रख दिया जबकि उसके आस-पास रहने वाले या उसके मित्र या सभी परिचितों को उसने फटाफट फ़ैसला लेकर आगे बढ़ते देखा पर, न जाने वही क्यों इस कशमकश में उलझ जाती जितना सुलझाना चाहती उतनी ही उसमें फंसती जाती हर किसी से मदद लेती अपनी समस्या बताती फिर भी किसी भी बात को मानने उसका मन पूरी तरह से तैयार नहीं होता और फिर थक-हारकर यदि जरूरी ही लगता तो उस घड़ी को टालने वो कोई न कोई फ़ैसला ले लेती पर, अंतत पाती कि नहीं ये करना भी उसके लिये सही नहीं रहा शायद, उसने अपने मन की पहली बात  ही सुनी होती तो बेहतर होता सबकी सलाह और अलग-अलग मशविरे ने उसके ‘मन’ को थाली के बैगन की तरह इधर-उधर दौड़ाने के सिवा कुछ भी नहीं किया क्योंकि हर किसी की बात सुनकर उसका छुटकू मन जो पहले ही बड़ा बेचैन था और भी ज्यादा बेकल होकर एक की जगह दस तरह की बातें कहने-सुनने लगा और कभी ये तो कभी वो के चक्कर में उसे ऐसा नचाया कि फिर थक-हारकर धड़ाम से तो गिरना ही था

‘अवनि’ जैसे अनगिनत लोग होते जो ‘जिंदगी’ द्वारा यदाकदा ली जाने वाली परीक्षा में पूछे गये सवालों के जवाब कभी भी लिख नहीं पाते क्योंकि ये वो इम्तिहान हैं जिसकी पढाई किसी भी ‘स्कूल’ या ‘कॉलेज’ में नहीं होती बल्कि घर या दुनिया की पाठशाला में आदमी स्वयं ही इसे सीखता या कभी-कभी उसे इस तरह से पाला-पोसा जाता कि बचपन से अपने छोटे-छोटे फैसले लेने की आज़ादी दी जाती जिसकी वजह से उसका जेहन इतना परिपक्व हो जाता कि धीरे-धीरे वो बड़े से बड़े कठिन निर्णय भी बड़ी आसानी से लेकर आगे बढ़ जाता लेकिन हम तो उनकी बात कर रहे जिनके लिये किसी भी परिस्थिति में इस तरह के हालात उत्पन्न होने पर सांस लेना भी मुश्किल हो जाता क्योंकि वो शुरू से ही ये जान नहीं पाये कि कब किस समय उन्हें किस तरह के कपड़े पहनना था या किसी चीज़ को खरीदना जरूरी या गैर-जरूरी था या किस समय किस काम को प्राथमिकता देनी थी वो हमेशा एक से अधिक विकल्प के अवसर मिलने पर खुश होने की बजाय दुखी हो गये कि अब किसे चुने जीवन के रास्ते पर चलते-चलते जब भी कभी ‘दोराहा’ या ‘चौराहा’ आया तो सोचने लगे कि किस रास्ते पर जाये पर, उनकी आकलन की क्षमता ने उनको धोखा दिया और जिस भी मार्ग पर उन्होंने चलना शुरू किया चलते ही रहे किसी भी मंजिल पर नहीं पहुंचे और वापस आ-आकर रास्ते बदलते-बदलते आधा जीवन बीत गया और सभी साथी भी बहुत आगे बढ़ गये पर, ये बेचारे अब तक इसी दुविधा में कि उनके लिये कौन-सा पथ बना हैं या उनसे कहाँ पर गलती हुई या वे ही क्यों इतने नासमझ कि अपना भला-बुरा नहीं जान पाये वे ये तो समझ गये कि इसके लिये वे किस्मत को भी नहीं कोस सकते क्योंकि इसमें किसी भी तकदीर का हवाला देना मुर्खता के सिवा कुछ भी नहीं बल्कि उनकी अपनी नाकाबिलियत हैं जो वो दूसरों की तरह तदबीर से अपना जीवन संवार नहीं सके उनको ही कभी फ़ैसला लेना न आया

वाकई ‘डिसीजन मेकिंग’ या ‘त्वरित निर्णय लेने की क्षमता’ भी एक ईश्वरीय वरदान हैं जो सबको हासिल नहीं और यही एक वो ‘जादुई छड़ी’ हैं जिसके कारण कुछ लोग दूसरों की अपेक्षा अधिक सफल होते या जीवन की दौड़ में सबसे आगे निकल जाते जबकि जिनको ये इल्म नहीं होता कि उनके लिये क्या करना सही होगा वे सदैव घड़ी के पेंडुलम की तरह यहाँ से वहां हिलते ही रहते लेकिन कभी किसी जगह पर ठहर नहीं पाते ये ‘मन’ की वही स्थिति हैं जो सबको महसूस होती पर, कुछ बड़ी सरलता से इससे बाहर आ जाते जबकि कुछ लोग झूलते ही रह जाते... सबका मन कभी न कभी बेचैन होता पर, सबको इससे निज़ात नहीं मिल पाती चंद ही होते जो किनारे पर बैठकर सुकून से अपने फ़ैसले का मज़ा लेते रहते जबकि बाकी का मन किसी तूफ़ान में भटके जहाज की भांति हवाओं के सहारे लहरों के भरोसे हिचकोले खाता रहता और वो कभी भी किसी भी किनारे तक नहीं पहुँच पाते हैं... या रब सबको इस नेमत से नवाज देता तो कितना अच्छा होता पर, जिनको ये नहीं दिया कम से कम उनको एक अदद मार्गदर्शक या सलाहकार ही खिवैया की तरह दे देता कि वो उसकी हिलती-डुलती नैया को किसी ठांव लगा देते... या तू खुद ही किसी का सारथी बन उसके जीवन रथ को हांकने आ जाता... :) :) :) !!!
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३० जून २०१५
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
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